1857 का विद्रोह के समय कब कौन क्या था
विद्रोह के समय इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री पाटन भारत का गवर्नर-जनरल लार्ड कैनिंग
विद्रोह के समय कम्पनी का मुख्य सेनापति-— जार्ज एनिसन विद्रोह प्रारंभ के बाद नियुक्त सेनापति कॉलिन कैम्पबेल
विद्रोह के समय भारत का सम्राट बहादुरशाह जफर 1857 ई. के विद्रोह को निम्नलिखित शीर्षकों के तहत सरलता से समझा जा सकता
(1) स्वरूप
(2) कारण
(3) प्रारम्भ
(4) विद्रोह का प्रसार एवं पतन
(5) असफलता के कारण
(6) महत्व
(7) परिणाम
स्वरूप 👇
भारत में ब्रितानी सत्ता की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने की पूर्व सन्ध्या पर भारतीय सैनिकों द्वारा जो विद्रोह किया गया, उसकी प्रकृति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। अंग्रेज इतिहासकारों ने इसे सिपाही विद्रोह, सामन्तवादी प्रतिक्रिया, हिन्दू-मुस्लिम षड्यंत्र आदि की संज्ञा दी है, जबकि अधिकांश भारतीय इतिहासकार इसे राष्ट्रीय आन्दोलन स्वीकार करते हैं जो भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ा गया।
लारेंस, सीले ट्रेवेलियन, मालसन, टी० आर० होम्स आदि अंग्रेज इतिहासकारों ने मात्र इसे “सैनिक विद्रोह” कहा कुछ भारतीयों ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाया है, जिसमें दुर्गादास बन्दोपाध्याय और सर सैय्यद अहमद खाँ प्रमुख थे। सर सैय्यद अहमद खाँ जो विद्रोह के समय बिजनौर के सदर अमीन पद पर थे, ने अपनी पुस्तक “An Essay on the Cause of the Indian revolt (1860 ) में इसे सैनिक विद्रोह माना । परन्तु, यह व्याख्या ठीक नहीं है। यद्यपि यह विद्रोह सैनिक विद्रोह के रूप में प्रारम्भ हुआ, परन्तु बाद में अधिकांश स्थानों पर जनता ने भी इसमें भाग लिया। 1858-59 ई० के अभियोगों (Trials) में हजारों असैनिकों को भी दण्डित किया गया था।
एल० ई० आर० रीज के अनुसार यह धर्मान्धों का ईसाइयों के विरूद्ध युद्ध था। इस मत से सहमत होना बहुत कठिन है। इसी तरह टी० आर० होम्स जैसे अंग्रेज इतिहासकार ने इसे बर्बरता तथा सभ्यता के बीच युद्ध की संज्ञा दी। इस तरह के विचार अंग्रेज इतिहासकार ही व्यक्त कर सकते हैं। सर जेम्स आउटम और डब्ल्यू० टेलर ने इस विद्रोह को हिन्दू-मुस्लिम षड्यंत्र का परिणाम बताया, जिसमें हिन्दू शिकायतों का लाभ उठाया गया। यह व्याख्या भी पर्याप्त नहीं है।
ब्रिटिश पार्लियामेण्ट में भी इस विद्रोह को सिपाही विद्रोह घोषित किया गया लेकिन, ब्रिटेन के प्रसिद्ध नेता बेंजामिन डिजरायली जो रूढ़िवादी दल के नेता थे, ने 27 जुलाई 1857 ई० को हाउस ऑफ कामन्स में बोलते हुए सरकार के इस मत का खण्डन किया और कहा कि यह आन्दोलन एक “राष्ट्रीय विद्रोह” था न कि सिपाही विद्रोह। भारतीय इतिहासकार अशोक मेहता ने अपनी पुस्तक “The Great Rebellion” में इसे राष्ट्रीय विद्रोह कहा ।
वी० डी० सावरकर ने 1909 ई० में लिखित अपनी पुस्तक “The Indian war of Independence, 1857 में इसे सुनियोजित स्वतंत्रता संग्राम” की संज्ञा दी। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद कई भारतीय इतिहासकारों ने इसकी प्रकृति की
चर्चा की। इनमें सुरेन्द नाथ सेन, रमेश चन्द्र मजूमदार, शशि भूषण चौधरी तथा पूरन चन्द्र जोशी महत्वपूर्ण हैं। एस० एन० सेन ने भारत सरकार के कहने पर “Eighteen Fifty Seven” नामक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक में वह तर्क देते हैं कि यद्यपि इसे “राष्ट्रीय संग्राम” नहीं कहा जा सकता, परन्तु इसे सैनिक विद्रोह की संज्ञा देना भी गलत होगा, क्योंकि यह कहीं भी केवल सैनिकों तक सीमित नहीं रहा। अवध में यह एक जनान्दोलन बन गया था, जहाँ के देशभक्तों ने अपने राजा तथा राज्य के लिए संघर्ष किया। इसके बावजूद सेन अवध के विद्रोहियों को स्वतंत्रता का अग्रणी नहीं मानते क्योंकि वे राष्ट्रीय तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की भावना से अनभिज्ञ थे। भारत सरकार ने आर० सी० मजूमदार को 1857 के विद्रोह का इतिहास लिखने के लिए नियुक्त किया था परन्तु सरकारी समिति से अनबन होने के कारण उन्होंने यह कार्य करने से इंकार कर दिया तथा स्वतंत्र रूप से अपनी पुस्तक “The Sepoy Mutiny and the Rebellion of 1857 1957 ई० में प्रकाशित की। तदनन्तर, उन्होंने अपने तर्कों को उन अध्यायों जो उन्होंने भारतीय विद्या भवन की पुस्तक “British Paramountcy and Indian Renaissance, Part I ” के लिए लिखे लेख में और अधिक विस्तारपूर्वक स्पष्ट किया है। उन्होंने इस पुस्तक में निष्कर्ष निकाला है कि. “यह तथाकथित प्रथम राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम्, न तो यह प्रथमः न ही राष्ट्रीय तथा न ही स्वतंत्रता संग्राम था. ।” मजूमदार ने इस विद्रोह का क्रमबद्ध इतिहास नहीं लिखा है, बल्कि इसके विषय में कुछ भ्रान्तियाँ दूर करने के उद्देश्य से कुछ तथ्य सामने रखे हैं। उनके विचार से इसे राष्ट्रीय आन्दोलन नहीं कहा जा सकता। इसने देश के विभिन्न भागों में अलग-अलग रूप धारण किए। उनकी मुख्य देन इस विद्रोह के गम्भीर प्रवाह के प्रति आगे आने वाली पीढ़ियों का ध्यान आकर्षित करना है।श
शिभूषण चौधरी 1957 ई० में प्रकाशित अपनी पुस्तक “Civil Rebellion in Indian Mutinics, 1857-1859 में 1857-58 ई० की घटनाओं को सैनिक व असैनिक विद्रोहों के सम्मिश्रण के रूप में देखते हैं। उनका कहना है कि इस विद्रोह का पहले के कृषक विद्रोहों से सम्बन्ध देखा जा सकता है। उन्होंने इस ओर ध्यान आकृष्ट किया है कि मूल रूप से लोग अपनी संस्कृति तथा तौर-तरीकों की रक्षा करने का प्रयत्न कर रहे थे। 1957 ई० में पूरन चन्द्र जोशी द्वारा सम्पादित पुस्तक “Rebellion, 1857; A Symposium” में मार्क्सवादी दृष्टिकोण से 1857 ई० की घटनाओं का विश्लेषण किया गया है।
शrशिभूषण चौधरी ने अपनी एक अन्य पुस्तक “Theories of the Indian Mutiny” में 1857 ई० के संघर्ष को स्वतंत्रता का संग्राम माना है।बहादुरशाह के मुकदमें के जज मेजर हैरियट ने मुकदमें में पेश किए गए सारे कागजातों का अध्ययन करने के बाद यह नतीजा निकाला- “आरम्भ से ही षड्यंत्र सिपाहियों तक सीमित नहीं था और न उनसे यह शुरू ही हुआ था, बल्कि इसकी शाखायें राजमहलों और शहरों में फैली हुई थीं।” बहादुरशाह ने 25 अगस्त, 1857 ई० को प्रकाशित इस्तहार में कहा था “यह सबको विदित है कि इस युग में हिन्दुस्तान के लोग चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, सभी विधर्मी और विश्वासघातक अंग्रेजों के जुल्म से बर्बाद हो रहे हैं।” नाना साहब ने फ्रांस के सम्राट् को चार पत्र लिखे जिनमें बहादुरशाह द्वारा लगाए गए अभियोगों का समर्थन किया गया था। अवध की गद्दी पर बैठे नये नवाब बिरजिस कादिर ने भी एकघोषणा पत्र विद्रोह का समर्थन करते हुए अंग्रेजों के विरुद्ध जारी किया था। इस आन्दोलन के तीन प्रमुख नेताओं के इन तीन लेखों से यह स्पष्ट हो जाता है। कि केवल सेना की शिकायतें ही 1857 की घटनाओं के लिए उत्तरदायी नहीं थी, बल्कि उच्च वर्ग में भी एक आम असन्तोष था। कुल मिलाकर 1857 ई० का विद्रोह मध्य युगीन व्यवस्था से अपने को बचाने और अपनी खोई हुई मर्यादा प्राप्त करने का अन्तिम प्रयास था। राजा और जमींदार इस जमातके नेता थे। यह मोटे तौर पर एक राजनीतिक आन्दोलन था जिसका उद्देश्य भारत से विदेशी शासन को दूर करना था ।
विद्रोह के कारण
1857 ई० के विद्रोह के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सैनिक कारण , विद्यमान थे, परन्तु सीधे तौर पर इसका मुख्य कारण अंग्रेजों द्वारा भारतीय जनता का अमानवीय शोषण था । प्रमुख कारणों का विश्लेषण निम्नलिखित है ।राजनीतिक कारण– यद्यपि मुगल सम्राट् 1803 ई० से ब्रिटिश संरक्षण में रहने लगा था, लेकिन मान-मर्यादा सम्बन्धित उनके दावे स्वीकृत थे। वे गवर्नर-जनरल को प्रिय पुत्र और वफादार नौकर” सम्बोधित करते थे। ब्रिटिश गवर्नर जनरल एम्हर्स्ट ने बादशाह को यह साफ समझा दिया कि आपकी बादशाहत नाम मात्र की है और दरबार के ब्रिटिश • रेजीडेण्ट ने नजर देते समय खड़े होने से इंकार किया। इसके बाद के एक ब्रिटिश गवर्नर जनरल आकलैण्ड ने बादशाह को अपने दावे और अधिकार छोड़ने को कहा। इसने बादशाह को नजर लेने, खिल्लत देने और दरबार करने से रोक दिया। दीवाने आम और दीवाने खास भी बन्द कर दिया गया। डलहौजी ने सम्राट् को लाल किले से हटने के लिए कहा। बादशाह को उपाधि छोड़ देने और अपने उत्तराधिकारी नामजद करने का अधिकार भी छोड़ देने को कहा।
घटनाओं से सभी लोग मुगल बादशाह के अपमान से नाराज हुए और उनकी “बादशाहत को मिटते हुए नहीं देखना चाहते थे। अवध के नवाब वाजिद अली शाह को अपदस्थ कर कुशासन के आधार पर फरवरी,
1856 ई० में अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया जबकि अवध से अधिक अंग्रेजों का समर्थक तथा आज्ञाकारी राज्य कोई भी नहीं था। अवध को एक चीफ कमिश्नर का क्षेत्र बना दिया गया और हेनरी लारेन्स पहला चीफ कमिश्नर नियुक्त हुआ था। डलहौजी ने उचित एवं अनुचित तरीकों से देशी राज्यों का अपहरण किया। गोदले ने का निषेध कर उसने सतारा, जैतपुर, सम्भलपुर, बघाट, उदेपुर, झांसी और नागपुर कोटि ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया।अंग्रेजों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के दत्तक पुत्र नाना साहब की पेंशन भी बन्द कर दी। कर्नाटक, सूरत और तंजौर की राजाओं के उपाधियों का अन्त कर दिया गया। 1854 ई० में डलहौजी ने जमीदारों एवं जागीरदारों की जाँच के लिए बम्बई में ईनाम कमीशन बैठाया। इस कमीशन ने 35 हजार जागीरों की जाँच की और लगभग 20 हजार जागीरें। जब्त कर लीं। कम्पनी की सेवा में भारतीयों को उच्च पदों पर नहीं रखा गया। 1860 ई० में सर सैय्यद अहमद ने घोषणा की कि विद्रोह का सबसे महत्वपूर्ण कारण भारतीयों को प्रशासकीय तन्त्र में प्रविष्ट न होने देना है। अंग्रेजों के प्रशासकीय परिवर्तनों ने यहाँ की प्रचलित व्यवस्था को झकझोर दिया।
आर्थिक कारण- अंग्रेजों को आर्थिक शोषण की नीति ही विद्रोह का प्रमुख कारण थी। यह शोषण भूमि व्यवस्थाओं के नए-नए आविष्कार करों में वृद्धि एवं भारतीय उद्योग धन्धों को नष्ट करके किया गया। सूखा, बाढ़ आदि के कारण फसलें न होने पर महाजनों से कर्ज लेकर लगान अदा करना होता था। कर्ज न अदा कर पाने पर सूदखोर जमीन पर कब्जा कर लेते थे। न्यायालयों एवं महाजनों के बीच गठबन्धन से ऐसी-ऐसी स्थिति पैदा हो गई जिससे भुक्तभोगी सत्ता उखाड़ फेंकने के लिए किसी भी अवसर का स्वागत करने को तैयार थे। भारतीय अर्थव्यवस्था पर दूसरा आघात व्यापार पर नियंत्रण के रूप में देखा जा सकता है।
हमारे राष्ट्रीय नेताओं, जिनमें दादा भाई नौरोजी, आर० पी० दत्त, आर० सी० दत्त, गोपाल कृष्ण गोखले आदि प्रमुख थे, ने अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों की कड़ी आलोचना की। दादाभाई नौरोजी ने 1861 ई० में प्रकाशित अपनी पुस्तक “Poverty and Un-British Rule in India” में धन निकासी (Drain Theory) का सिद्धान्त प्रस्तुत किया।
सामाजिक धार्मिक कारण — विलियम बैंटिक एवं डलहौजी के समय हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए कानून बनाये गये। जैसे-सती प्रथा, कन्या वध, बाल विवाह का निषेध एवं विधवा विवाह का समर्थन आदि। पण्डित और मौलवियों ने जान-बूझकर अंग्रेजों के इन विचारों को चुनौती दी क्योंकि इन कार्यों से उनकी शक्ति एवं प्रभाव में कमी आई। यूरोपीय अधिकारी भारतीयों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते थे, इस सम्बन्ध में तिलक ने लिखा है कि “कोई भी आत्म-सम्मान युक्त जाति इसे एक घण्टे के लिए बर्दाश्त नहीं करेगी।” सामाजिक दृष्टि से भारतीयों के प्रति अंग्रेजों के व्यवहार एवं उनके विचार बहुत ही अपमानजनक हुआ करते थे। ये भारतीयों को काले अथवा सूअर की संज्ञा देते थे। होटलों और क्लबों में भारतीय प्रवेश नहीं कर सकते थे। 1813 ई० में जब ईसाई मिशनरियों को भारत में आने की अनुमति दी गई, तब से
उनका प्रचार कार्य बहुत बढ़ गया। अब शिक्षण संस्थाओं में भी ईसाई धर्म का प्रचार प्रारम्भ हुआ। 1837 ई. के अकाल के समय अनेक व्यक्तियों को ईसाई बनाया गया। 1845 ई० में एक नियम द्वारा कारागार में बन्दियों को अपने भोजन के बर्तन ले जाने पर रोक लगा दी गई तथा कैदियों का भोजन एक गैर ब्राह्मण द्वारा बनाया जाना प्रारम्भ किया गया। इससे कैदियों को लगा कि उन्हें ईसाई बनाया जा रहा है। गोपीनाथ नामक एक बंगाली हिन्दू जो ईसाई बन चुका था लिखता है कि “जेल में कैदियों को प्रतिदिन एक ईसाई अध्यापक ईसाई धर्म की शिक्षा देता है।” एक अंग्रेज अधिकारी मेजर एडवर्ड्स ने लिखा है कि “भारत पर हमारे अधिकार का अन्तिम उद्देश्य देश को ईसाई बनाना है।” वीर सावरकर ने लिखा है कि “सैनिक एवं असैनिक उच्च अधिकारी राम एवं मुहम्मद को गालियाँ देते थे और सैनिकों को ईसाई बनने की प्रेरणा देते थे। मन्दिरों, मस्जिदों तथा उनके पुरोहितों एवं इमामों या लोक उपकारी संस्थाओं की जमीन पर लगान लगाने से भी लोगों की धार्मिक भावना को ठेस पहुँची। अप्रैल, 1850 ई० में लेक्स लोकी कानून अर्थात् धार्मिक अयोग्यता अधिनियम द्वारा हिन्दू रीति-रिवाजों में परिवर्तन लाया गया। अब ईसाई बनने वाला व्यक्ति अपने पिता की सम्पत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता था। डलहौजी द्वारा गोद लेने की प्रथा का निषेध किया जाना हिन्दू धर्मशास्त्र के विरुद्ध था । अतः, हिन्दू समाज में असंतोष फैल गया।
सैनिक कारण-समाज के उच्च वर्ग के लोगों में जो असन्तोष व्याप्त था, वह बंगाल सेना के भारतीय सिपाहियों में भी व्याप्त था। बंगाल सेना के अधिकांश सैनिक ब्राह्मण या राजपूत थे। कार्नवालिस की आंग्लीकरण की नीति के कारण भारतीयों के लिए पद-वृद्धि के दरवाजे बन्द हो गए। भारतीय सिपाहियों का वेतन भी बहुत कम था। उन्हें 7 रुपये महीने वेतन मिलता था। सेना में लगभग 2 लाख 38 हजार भारतीय सैनिक तथा 45 हजार यूरोपीय सैनिक थे। इस तरह भारतीय और यूरोपीय सैनिकों के बीच अनुपात लगभग 5:1 था । गोरे अफसर भारतीयों के साथ दुर्व्यवहार करते थे। इस समय सेना कमान में बंगाल कमान सबसे बड़ी थी यहाँ की मुख्य छावनियाँ बैरकपुर, बहरामपुर और दमदम थीं। बिहार में दानापुर, उत्तर प्रदेश में कानपुर और मेरठ, पश्चिम में सरहिन्द लाहौर और पेशावर तथा मध्य भारत में ग्वालियर सबसे बड़ी छावनी थी।भारतीय सिपाहियों का पहला विद्रोह 1764 ई० में तब हुआ, जब बक्सर में मीर कासिम के विरुद्ध लड़ते हुए मुनरो की सेना के एक बटालियन नवाब की सेना में मिल गई। इन पर मुकदमा चला और 24 सिपाहियों को तोप से उड़ा दिया गया।सेना में प्रथम धार्मिक विरोध 1806 ई० में वेल्लौर में हुआ। यहाँ माथे पर तिलक लगाने और पगड़ी बाँधने पर रोक लगाई गई इसकी जगह एक हैट लगाया जाना प्रारम्भ किया गया, जिस पर चमड़े का तुर्रा और पंख लगा होता था। यह तुर्रा सूअर और गाय के चमड़े का होता था। इसको यहाँ किले में नजरबन्द टीपू के लड़कों ने चिंगारी दे दी और सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। अंग्रेजी सेना ने अन्ततः विद्रोह को कुचल दिया। सेना में एक अन्य धार्मिक विरोध 1824 ई० में हुआ, जब बैरकपुर की 47वीं रेजीमेण्ट ने बर्मा जाने से इंकार कर दिया क्योंकि हिन्दुओं के लिए समुद्र पार जाने का मतलब था उनका धर्म नष्ट होना विरोध करने वाले सिपाहियों को फांसी दे दी गई और 47वीं रेजीमेण्ट भंग कर दिया गया। दुगना वेतन-भत्ते के विरोध में 1844 ई० में फीरोजपुर की 64वीं रेजीमेण्ट ने भी विद्रोह कर दिया। इनके नेताओं को सजा दी गई और रेजीमेण्ट भंग कर दिया गया। 1857 ई० का विद्रोह इन प्रयासों की पराकाष्ठा थी।
1854 ई० में डाकघर अधिनियम पारित होने पर सैनिकों को निःशुल्क डाक सुविधा समाप्त कर दी गई। 1856 ई० में कैनिंग की सरकार ने सेना भर्ती अधिनियम पारित कर दिया जिसके अनुसार सेना के सभी सैनिकों को यह स्वीकार करना होता था कि जहाँ कहीं भी सरकार को आवश्यकता होगी, वे वहीं कार्य करेंगे। अतः, अब वे समुद्र पार जाने से मना नहीं कर सकते। सैनिकों का कृपकों से अटूट सम्बन्ध था। बंगाल में अधिकतर सिपाही उत्तर प्रदेश से आते थे। इनमें अधिकतर ऊँची जाति के थे, जो प्राय: अनुशासन स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। चा नेपियर को इन उच्च जातीय आहे के सैनिकों पर कोई विश्वास नहीं था।
तात्कालिक कारण-1856 ई० में सरकार ने पुरानी लोहे वाली बन्दूक ब्राउन बैस में के स्थान पर न्यू इन्फील्ड रायफल के प्रयोग का निश्चय किया। इस रायफल कारतूस के ऊपरी भाग को मुँह से काटना पड़ता था। जनवरी, 1857 ई० में बंगाल सेना में यह अफवाह फैल गई कि कारतूस में गाय और सूअर की चर्बी लगी है। इस घटना ने चिंगारी का कार्य किया और मंगल पाण्डे ने विद्रोह की शुरुआत कर दी। कालान्तर में पूँछ-ताछ ने सिद्ध कर दिया कि वास्तव में गाय और सूअर की चर्बी इसमें प्रयोग की गई थी।
विद्रोह का प्रारम्भ23 जनवरी, 1857 ई० को दमदम के सैनिकों ने कारतूसों के प्रयोग को अस्वीकार किया। 26 फरवरी, 1857 ई० को महरामपुर के सैनिकों ने कारतूसों के प्रयोग को मना कर दिया और विद्रोह कर दिया। 29 मार्च, 1857 ई० को 34थी रेजोमेण्ट बैरकपुर (मुशिदाबाद के निकट) के मंगल पाण्डे ने अपने साथियों का विद्रोह के लिए आह्वान किया और इसने एडजुटेण्ट लेफ्टिनेट वाग की हत्या कर दी और मेजर सार्जेण्ट हारसन को गोली ह्यूरसन मारी मंगल पाण्डे को 8 अप्रैल को फांसी पर लटका दिया गया और रेजीमेण्ट भंग कर दी गई। 24 अप्रैल, 1857 है को मेरठ में तैनात देशी घुड़सवार सेना के 99 सिपाहियों ने चर्बी लगे कारतूसों को इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया। 9 मई, 1857 ई० को इनमें से 85 को बर्खास्त कर 10 वर्ष की सजा सुनायी गई। 10 मई, 1857 ई० को मेरठ में तैनात पूरी भारतीय सेना ने विद्रोह कर दिया और अपने अधिकारियों पर गोली चलाई। अपने साथियों को मुक्त करवाकर ये लोग दिल्ली की ओर चल पड़े। मेरठ में तैनात जनरल हेविट के पास 2200 यूरोपीय सैनिक थे परन्तु इस तूफान को रोकने का प्रयास नहीं किया। गया। मेरठ के विद्रोही 11 मई को दिल्ली पहुँचे और 12 मई, 1857 ई० को उन्होंने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। लेफ्टीनेन्ट विलोबी जो दिल्ली में शस्त्रागार का कार्यवाहक था, ने कुछ प्रतिरोध किया परन्तु पराजित हुआ। विद्रोहियों ने बहादुर शाह द्वितीय को भारत उप सम्राट् घोषित किया। बहादुर शाह द्वारा नेतृत्व स्वीकार करने के कारण ऐसे सब लोगों के लिए एकत्र होने के लिए एक केन्द्र-बिन्दु मिल गया, जो ब्रिटिश राज्य को समाप्त करना