Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History

यूरोपीय कंपनियों का आगमन

Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History  प्राचीन काल में यूरोप और भारत के बीच व्यापारिक संबंध यूनानियों के साथ आरम्भ हुए। मध्यकाल में यूरोप का भारत से व्यापार कई मार्गों से होता था। एक मार्ग फारस की खाड़ी तक समुद्र के रास्ते जाता था।

            इराक़ और तुर्की होकर जमीन के रास्ते एवं आगे समुद्र के जरिये वेनिस

हाँ से फिर इराक़ और तुर्की होकर जमीन के रास्ते एवं आगे समुद्र के जरिये वेनिस और जेनेवा तक जाता था। एक दूसरा मार्ग लाल सागर होकर मिस्र के सिकन्दरिक्षा तक पल मार्ग और वहाँ से समुद्र के जरिए वेनिस और जेनेवा पहुँचता था। एक तीसरा मगर कम प्रचलित बल मार्ग भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा- प्रान्त के दरों से होकर मध्य एशिया, रूस तथा बाल्टिक सागर को पार करता हुआ जाता था। spectrum modern history www.pcshindi.com पर पढ रहै हैं ।

                 भारत को यूरोप से मिलाने वाले दो मुख्य समुद्री मार्ग

भारत को यूरोप से मिलाने वाले दो मुख्य समुद्री मार्ग थे- प्रथम फारस की खाड़ी से होकर एवं द्वितीय लाल सागर से होकर। इसमें फारस की खाड़ी वाला मार्ग ज्यादा प्रचलित था, क्योंकि लाल सागर वाला मार्ग अत्यधिक कुहरे के कारण दुष्कर था एशिया का अधिकांश व्यापार अरववासियों के हाथ में था, www.pcshindi.com

                                     गरम मसालों की यूरोप में ,तुर्कों के अधीन, 

जबकि भू-मध्य सागरीय और यूरोपीय व्यापार इतालवी व्यापारियों के एकाधिकार में था ,यह व्यापार पूर्वी देशों के गरम मसालों के कारण बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि गरम मसालों की यूरोप में बहुत माँग थी ये मसाले यूरोप में बहुत महंगे बिकते थे, क्योंकि जाड़ों में नमक और काली मिर्च डले गोश्त पर ही वे जिन्दा रहते थे ।

कुस्तुनिया पर तुर्की का अधिकार

1453 ई० में कुस्तुनिया पर तुर्की ने अधिकार कर लिया, इस कारण पूर्वी और पश्चिमी देशों के मध्य सम्पर्क स्थापित करने वाला मार्ग भी तुर्कों के अधीन आ गया और उन्होंने यूरोप के व्यापारियों को अपने साम्राज्य से होकर पूर्वी देशों से व्यापार करने की सुविधा देने से इन्कार कर दिया। पहले वेनिस और जेनेवा के व्यापारियों ने यूरोप और एशिया के बीच व्यापार पर एकाधिकार कर लिया था, इस कारण यूरोप के नवीन राष्ट्र स्पेन और पुर्तगाल व्यापार से बहिष्कृत थे, www.pcshindi.com

लेकिन गरम मसाले के महत्व और भारत के विख्यात वैभव के लोभ से पूरब के साथ व्यापार करने को ये लालायित थे। इसीलिए पश्चिमी यूरोप के नवीन राज्यों ने भारत और इण्डोनेशिया के मसाला द्वीपों तक पहुँचने के लिए नए और अपेक्षाकृत कम जोखिम भरे मार्ग इंडने आरम्भ कर दिए। ये लोग अरब और वेनिस के व्यापारियों के एकाधिकार को तोड़कर तथा दुर्की के झगड़े से बचकर पूरब के देशों से सीधे व्यापारिक संबंध कायम करना चाहते थे। वे ऐसा करने के लिए पूरी तरह समर्थ थे, क्योंकि 15वीं सदी के दौरान जहाजरानी निर्माण और नौपरिवहन विज्ञान में महान प्रगति हुई। www.pcshindi.com

यूरोप के पुनर्जागरण ने पश्चिमी यूरोप के लोगों में उद्यम की भावना पैदा कर दी। इस समय कुतुबनुमा (दिशा सूचक) का आविष्कार भी हो चुका था। नए भौगोलिक आविष्कार और व्यापारिक मार्गों की खोज में पुर्तगाल अग्रणी था। पुर्तगाल के राजकुमार प्रिंस हेनरी “द नेवीगेटर” के सतत प्रयासों से भौगोि खोजों का कार्य आसान हुआ।
पुर्तगालियों और स्पेनवासियों ने भौगोलिक खोजों का युग आरम्भ किया। पुर्तगाल के नाविक बार्थोलोमोडियाज ने 1487 ई० में उत्तमाशा अन्तरीप को खोज निकाला, जिसे उसने तूफानी अन्तरीप कहा। 1494 ई० में स्पेन के निवासी कोलम्बस ने भारत पहुँचने का मार्ग ढूंढ़ते हुए अमरीका को खोज निकाला। 1498 ई० में पुर्तगाली वास्कोडिगामा ने उत्तमाशा अन्तरीप का चक्कर काटकर भारत तक पहुँचने में सफलता पाई। इन समस्त नवीन खोजों का एकमात्र उद्देश्य व्यापारिक मार्गों की जानकारी प्राप्त करना एवं आर्थिक लाभ कमाना था।Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

             मालाबार तट , कालीकट एवं कोचीन से संबन्धित


भारत के पश्चिम में मालाबार तट पर कालीकट एवं कोचीन तथा गुजरात में सूरत, भड़ौंच और कैम्बे प्रसिद्ध बन्दरगाह थे। ये बन्दरगाह पश्चिमी देशों के साथ भारतीय व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे। दक्षिण-पूर्वी एशिया के मसाले, रेशम, चीनी मिट्टी, लाख इत्यादि वस्तुएँ मालाबार तट पर लायी जाती थीं, जहाँ से लाल सागर एवं फारस की खाड़ी होकर इन्हें पश्चिमी देशों को भेजा जाता था। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History

पश्चिमी देशों को भेजी जाने वाली अन्य प्रमुख भारतीय वस्तुएं थीं— सूती कपड़ा, नील, मसाले और जड़ी-बूटियों इस समय गुजरात से भारी मात्रा में सूती कपड़े का निर्यात होता था । 1500 ई. के लगभग भारत के समूचे व्यापार को नियंत्रित करने वाला प्रमुख समुदाय या कोरोमण्डल चेट्टियार समुदाय बंगाल की खाड़ी के समूचे क्षेत्र में और विशेष रूप से कोरोमण्डल से मलक्का तक के व्यापार में उनकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस व्यापार में उनके साथ एक अन्य दक्षिण-पूर्वी व्यापारी समुदाय था चूलिया मुसलमान इस प्रकार भारत में पुर्तगालियों के आगमन के समय विशिष्ट समुद्री मार्गों पर विशिष्ट व्यापारिक समुदायों का प्रभुत्व था।भारत में यूरोपवासियों के आने के क्रम में सर्वप्रथम पुर्तगीज थे। इसके बाद डच, अंग्रेज, डेनिश और फ्रांसीसी आए। इन यूरोपियों में यद्यपि अंग्रेज डच के बाद आए थे, परन्तु उनकी ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी से पहले ही हो चुकी थी। www.pcshindi.com पर पढ रहै हैं ।

                        पुर्तगीज कौन और कहाँ से आये

 

यूरोपवासियों में सर्वप्रथम पुर्तगीज भारत आए। उत्तमाशा अन्तरीप का चक्कर काटते हुए अब्दुल मनीद नामक गुजराती पथ-प्रदर्शक की सहायता से 17 मई, 1498 ई० को कालीकट के प्रसिद्ध बन्दरगाह पर “कप्पकडाबू” नामक स्थान पर वास्कोडिगामा अपना बेड़ा उतारा।

                                       पुर्तगाली शासक ‘मैनुअल’ द्वारा “वाणिज्य के प्रधान” की उपाधि

कालीकट में बसे हुए अरब व्यापारियों ने उसके प्रति वैमनस्य का रवैया अपनाया, किन्तु कालीकट के हिन्दू राजा ने, जिसकी पैतृक उपाधि ‘जमोरिन’ थी, उसका हार्दिक स्वागत किया और उसे मसाले एवं जड़ी-बूटियाँ इत्यादि ले जाने की आज्ञा प्रदान की वास्कोडिगामा को इस माल से यात्रा व्यय निकालने के बाद भी 60 गुना लाभ प्राप्त हुआ। इस तरह पुर्तगाल की राजधानी लिस्वन कुछ समय के लिए समस्त यूरोपीय व्यापार का केन्द्र बन गई। और पुर्तगाली शासक ‘मैनुअल’ द्वारा “वाणिज्य के प्रधान” की उपाधि धारण की गई।Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

                                     फ्रांसिस्को डी अलमीडा” को प्रथम पुर्तगाली वायसराय बनाकर भारत भेजा गया –
1500 ई० में पेड़ो अल्वरेज केवल’ के नेतृत्व में द्वितीय पुर्तगाली अभियान कालीकट पहुँचा। इसने कालीकट बन्दरगाह में एक अरबी जहाज पकड़कर जमोरिन को उपहारस्वरूप भेंट किया। 1502 ई० में वास्कोडिगामा पुनः भारत आया। 1503 ई० में पुर्तगालियों ने कोचीन में पहली फैक्ट्री बनाई। 1505 ई० में उन्होंने कन्नूर (Connore) में दूसरी फैक्ट्री बनाई। उसी वर्ष 1505 ई० में “फ्रांसिस्को डी अलमीडा” को प्रथम पुर्तगाली वायसराय बनाकर भारत भेजा गया।पुर्तगालियों के यूरोप एवं भारत के बीच एक सीधा समुद्री मार्ग खोजने के पीछे आर्थिक और धार्मिक कारण सक्रिय थे।

आर्थिक कारणों में अरबों एवं अपने यूरोपीय प्रतिस्पर्धियों यानी वेनिस एवं जेनेवा के व्यापारियों को समृद्ध पूर्वी व्यापार से निकाल बाहर करना और धार्मिक कारणों में अफ्रीका एवं एशिया की जनता को ईसाई बनाकर तुर्कों एवं अरबों की बढ़ती हुई शक्ति को संतुलित करना था। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

                                  फ्रांसिस्को डी अल्मीडा (1505-09 ई०) 

अल्मीडा को भारत का प्रथम पुर्तगाली गवर्नर बनाया गया। उसे सरकार की ओर से निर्देश था कि वह भारत में ऐसे पुर्तगाली दुर्ग बनाए जिसका लक्ष्य सुरक्षा न होकर, हिन्द महासागर के व्यापार पर पुर्तगाली नियंत्रण स्थापित करना हो। इस प्रकार अल्मीडा का मूल उद्देश्य शान्तिपूर्वक व्यापार करना था। उसकी यह नीति “ब्लू वाटर पॉलिसी (Blue Water Policy)” अथवा “शान्त जल की नीति” कहलाई ।

अल्मीडा का 1508 ई० में संयुक्त मुस्लिम नौसैनिक बेड़े (गुजरात + मिस्र + तुर्की) से चौल के समीप युद्ध हुआ, जिसमें यह पराजित हुआ और इसका पुत्र मारा गया। लेकिन अपनी वापसी के पूर्व 1509 ई० में इसने संयुक्त मुस्लिम नौसैनिक बेड़े को पराजित किया। इस विजय से एशिया में ईसाई जगत की नौसैनिक श्रेष्ठता स्थापित हुई और 16वीं शताब्दी में हिन्द महासागर पुर्तगाली सागर के रूप में परिवर्तित हो गया।
                                                   अलफांसो डी अलबुकर्क (1509-15 ई०)
अल्मीडा के बाद अल्बुकर्क गवर्नर बना। इसे भारत में पुर्तगीज शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने कोचीन को अपना मुख्यालय बनाया। 1510 ई० में अलबुकर्क ने बीजापुर के आदिलशाही सुल्तान से गोआ जीत लिया। गोआ की विजय ने दक्षिण-पश्चिम समुद्र तट पर पुर्तगाली नौसैनिक प्रभुत्व की मुहर लगा दी। इसके साथ ही भारत में क्षेत्रीय पुर्तगाली राज्य की स्थापना हुई।Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

अलबुकर्क ने 1511 ई० में दक्षिण-पूर्वी एशिया की महत्त्वपूर्ण मण्डी मालवका पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। फारस की खाड़ी के मुख पर स्थित हरमज (Hormoz) पर उसकर अधिकार 1515 ई० में हो गया। ये तीनों नगर सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण थे, किन्तु बार-बार प्रयास करने पर भी पुर्तगाली अदन पर अधिकार नहीं कर सके, जो लाल सागर के व्यापार पर नियंत्रण की कुंजी थी।


अलबुकर्क भारत में स्थायी पुर्तगीज आबादी बसाना चाहता था इसलिए उसने स्वदेश वासियों को भारतीय स्त्रियों से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। अलबुकर्क ने अपने क्षेत्र में सती प्रथा बन्द कर दी, किन्तु उसकी नीति में एक बहुत बुरी बात यह थी कि वह मुसलमानों को बहुत तंग करता था। जो भी हो उसने वफादारी के साथ पुर्तगीजों की सेवा >Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

                                   नीनो डी कुन्हा (1529-38 ईo)

1502 ई० में वास्कोडिगामा पुनः भारत आया। 1503 ई० में पुर्तगालियों ने कोचीन में पहली फैक्ट्री बनाई। 1505 ई० में उन्होंने कन्नूर (Connore) में दूसरी फैक्ट्री बनाई। उसी वर्ष 1505 ई० में “फ्रांसिस्को डी अलमीडा” को प्रथम पुर्तगाली वायसराय बनाकर भारत भेजा गया।

पुर्तगालियों के यूरोप एवं भारत के बीच एक सीधा समुद्री मार्ग खोजने के पीछे आर्थिक और धार्मिक कारण सक्रिय थे। आर्थिक कारणों में अरबों एवं अपने यूरोपीय प्रतिस्पर्धियों यानी वेनिस एवं जेनेवा के व्यापारियों को समृद्ध पूर्वी व्यापार से निकाल बाहर करना और धार्मिक कारणों में अफ्रीका एवं एशिया की जनता को ईसाई बनाकर तुर्कों एवं अरबों की बढ़ती हुई शक्ति को संतुलित करना था।

                                                                   फ्रांसिस्को डी अल्मीडा (1505-09 ई०)

अल्मीडा को भारत का प्रथम पुर्तगाली गवर्नर बनाया गया। उसे सरकार की ओर से निर्देश था कि वह भारत में ऐसे पुर्तगाली दुर्ग बनाए जिसका लक्ष्य सुरक्षा न होकर, हिन्द महासागर के व्यापार पर पुर्तगाली नियंत्रण स्थापित करना हो। इस प्रकार अल्मीडा का मूल उद्देश्य शान्तिपूर्वक व्यापार करना था। उसकी यह नीति “ब्लू वाटर पॉलिसी (Blue Water Policy)” अथवा “शान्त जल की नीति” कहलाई । Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

अल्मीडा का 1508 ई० में संयुक्त मुस्लिम नौसैनिक बेड़े (गुजरात + मिस्र + तुर्की) से चौल के समीप युद्ध हुआ, जिसमें यह पराजित हुआ और इसका पुत्र मारा गया। लेकिन अपनी वापसी के पूर्व 1509 ई० में इसने संयुक्त मुस्लिम नौसैनिक बेड़े को पराजित किया। इस विजय से एशिया में ईसाई जगत की नौसैनिक श्रेष्ठता स्थापित हुई और 16वीं शताब्दी में हिन्द महासागर पुर्तगाली सागर के रूप में परिवर्तित हो गया।

                                          अल्मीडा के बाद अल्बुकर्क गवर्न

अलफांसो डी अलबुकर्क (1509-15 ई०)अल्मीडा के बाद अल्बुकर्क गवर्नर बना। इसे भारत में पुर्तगीज शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने कोचीन को अपना मुख्यालय बनाया। 1510 ई० में अलबुकर्क ने बीजापुर के आदिलशाही सुल्तान से गोआ जीत लिया। गोआ की विजय ने दक्षिण-पश्चिम समुद्र तट पर पुर्तगाली नौसैनिक प्रभुत्व की मुहर लगा दी। इसके साथ ही भारत में क्षेत्रीय पुर्तगाली राज्य की स्थापना हुई। अलबुकर्क ने 1511 ई० में दक्षिण-पूर्वी एशिया की महत्त्वपूर्ण मण्डी मालवका पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।

फारस की खाड़ी के मुख पर स्थित हरमज (Hormoz) पर उसकर अधिकार 1515 ई० में हो गया। ये तीनों नगर सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण थे, किन्तु बार-बार प्रयास करने पर भी पुर्तगाली अदन पर अधिकार नहीं कर सके, जो लाल सागर के व्यापार पर नियंत्रण की कुंजी थी।अलबुकर्क भारत में स्थायी पुर्तगीज आबादी बसाना चाहता था इसलिए उसने स्वदेश वासियों को भारतीय स्त्रियों से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया।

                                             अलबुकर्क ने अपने क्षेत्र में सती प्रथा बन्द किया 

अलबुकर्क ने अपने क्षेत्र में सती प्रथा बन्द कर दी, किन्तु उसकी नीति में एक बहुत बुरी बात यह थी कि वह मुसलमानों को बहुत तंग करता था। जो भी हो उसने वफादारी के साथ पुर्तगीजों की सेवा

अल्मीडा के बाद अल्बुकर्क गवर्नर बना। इसे भारत में पुर्तगीज शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने कोचीन को अपना मुख्यालय बनाया। 1510 ई० में अलबुकर्क ने बीजापुर के आदिलशाही सुल्तान से गोआ जीत लिया। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

गोआ की विजय ने दक्षिण-पश्चिम समुद्र तट पर पुर्तगाली नौसैनिक प्रभुत्व की मुहर लगा दी। इसके साथ ही भारत में क्षेत्रीय पुर्तगाली राज्य की स्थापना हुई। अलबुकर्क ने 1511 ई० में दक्षिण-पूर्वी एशिया की महत्त्वपूर्ण मण्डी मालवका पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। फारस की खाड़ी के मुख पर स्थित हरमज (Hormoz) पर उसकर अधिकार 1515 ई० में हो गया। ये तीनों नगर सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण थे, किन्तु बार-बार प्रयास करने पर भी पुर्तगाली अदन पर अधिकार नहीं कर सके, जो लाल सागर के व्यापार पर नियंत्रण की कुंजी थी। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

अलबुकर्क भारत में स्थायी पुर्तगीज आबादी बसाना चाहता था इसलिए उसने स्वदेश वासियों को भारतीय स्त्रियों से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। अलबुकर्क ने अपने क्षेत्र में सती प्रथा बन्द कर दी, किन्तु उसकी नीति में एक बहुत बुरी बात यह थी कि वह मुसलमानों को बहुत तंग करता था। जो भी हो उसने वफादारी के साथ पुर्तगीजों की सेवा

                                                    अल्फांसो डी अल्बुकर्क

अल्मीडा के बाद अलबुकर्क गवर्नर बना। इसे भारत में पुर्तगीज शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने कोचीन को अपना मुख्यालय बनाया। 1510 ई० में अलबुकर्क ने बीजापुर के आदिलशाही सुल्तान से गोआ जीत लिया। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

गोआ की विजय ने दक्षिण-पश्चिम समुद्र तट पर पुर्तगाली नौसैनिक प्रभुत्व की मुहर लगा दी। इसके साथ ही भारत में क्षेत्रीय पुर्तगाली राज्य की स्थापना हुई। अलबुकर्क ने 1511 ई० में दक्षिण-पूर्वी एशिया की महत्वपूर्ण मण्डी मलक्का पर नियंत्रण स्थापित कर लिया।

फारस की खाड़ी के मुख पर स्थित हरमुज (Hormuz) पर उसका अधिकार 1515 ई० में हो गया। ये तीनों नगर सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण थे, किन्तु बार-बार प्रयास करने पर भी पुर्तगाली अदन पर अधिकार नहीं कर सके, जो लाल सागर के व्यापार पर नियंत्रण की कुंजी थी।

अलबुकर्क भारत में स्थायी पुर्तगीज आबादी बसाना चाहता था। इसलिए उसने स्वदेश वासियों को भारतीय स्त्रियों से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। अलबुकर्क ने अपने क्षेत्र में सती प्रथा बन्द कर दी, किन्तु उसकी नीति में एक बहुत बुरी बात यह थी कि वह मुसलमानों को बहुत तंग करता था। जो भी हो उसने वफादारी के साथ पुर्तगीजों की सेवा की। 1515 ई० में उसकी मृत्यु हुई। उस समय पुर्तगीज भारत की सबसे सबल जल शक्ति बन चुके थे तथा पश्चिमी समुद्र तट पर उनकी तूती बोलने लगी थी । Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

                                           पुर्तगाली सामुद्रिक साम्राज्य को एस्तादो द इण्डिया नाम दिया

पुर्तगाली सामुद्रिक साम्राज्य को एस्तादो द इण्डिया नाम दिया गया। उन्होंने हिन्द महासागर में होने वाले व्यापार को नियंत्रित करने और उस पर कर लगाने का प्रयास किया। अपनी कार्ट्ज-आर्मेडा-काफिला व्यवस्था (Cartaz-Armada-Cafile System) द्वारा उन्होंने एशियाई व्यापार पर गहरा प्रभाव डाला। उनका मुख्य साधन था कार्ट्ज या परमिट जिसके पीछे आर्मेडा का बल होता था। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

पुर्तगाली अपने आप को “सागर के स्वामी” कहते थे और कार्ट्ज-आर्मेडा व्यवस्था को उचित ठहराते थे। कोई भी भारतीय या अरबी जहाज पुर्तगाली अधिकारियों से कार्ट्ज (परमिट) लिए बिना अरब सागर में नहीं जा सकता था। कार्ज के लिए शुल्क देना पड़ता था। एशिया के शासक इस व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए बाध्य थे क्योंकि पुर्तगालियों की नौ-सेना अत्यन्त शक्तिशाली थी।

भारतीय एवं अरबी जहाजों को काली मिर्च एवं गोला-बारूद ले जाने की अनुमति नहीं थी । पुर्तगालियों ने अपने आपको यह अधिकार भी दे रखा था कि वे निषिद्ध व्यापार में लगे होने के सन्देह पर जहाजों का तलाशी ले सकते थे। पुर्तगालियों को व्यापार नियंत्रण का एक अन्य उपाय भी करना पड़ा, वह था -काफिला व्यवस्था। इसमें स्थानीय व्यापारियों के जहाजों का एक काफिला होता था, जिसकी रक्षा के लिए पुर्तगाली बेड़ा साथ-साथ चलता था। इसके दो कार्य थे— प्रथम इन जहाजों की समुद्री डाकुओं से रक्षा करना एवं द्वितीय यह निश्चित करना कि इनमें से कोई जहाज पुर्तगाली व्यवस्था के बाहर जाकर व्यापार न करें। मुगल बादशाह तक सूरत से मोरवा जाने वाले अपने जहाजों के लिए परमिट प्राप्त करते थे।

मुगल सम्राट अकबर ने पुर्तगालियों से प्रतिवर्ष एक निःशुल्क कार्ट्ज प्राप्त करके एक प्रकार से उनका नियंत्रण स्वीकार कर लिया। पुर्तगालियों का हिन्द महासागर पर 1595 ई० तक एकाधिकार बना रहा।
पुर्तगाली प्रभुत्व का पतन- पुर्तगालियों के पतन के अनेक कारण थे। प्रथमतः, उनकी धार्मिक असहिष्णुता से भारतीय शक्तियाँ बिगड़ गई और इनकी शत्रुता पर विजय प्राप्त करना पुर्तगीजों के बूते के बाहर की बात थी। दूसरे, उनका चुपके-चुपके व्यापार करना अन्त में उनके लिए घातक हो गया। तीसरे ब्राजील का पता लग जाने पर पुर्तगाल की उपनिवेश सम्बन्धी क्रियाशीलता पश्चिम की ओर उन्मुख हो गई। अन्ततः एवं सर्वप्रमुख कारण उनके पीछे आने वाली दूसरी यूरोपीय कम्पनियों से उनकी प्रतिद्वंद्विता हुई जिसमें वे पिछड़ गए। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 
                                                            पुर्तगाली आधिपत्य का परिणाम

हिन्द महासागर में पुर्तगाली नियंत्रण के कतिपय महत्वपूर्ण धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक परिणाम हुए। पुर्तगालियों ने भारत में अपने आधिपत्य की स्थापना के साथ ही धर्म परिवर्तन को बढ़ावा दिया। 1540 ई० में गोआ के सभी मन्दिर नष्ट कर दिए गए। बाद में 1573 ई० में बार्डे (Barde) और 1584-87 ई० में सालसेट (Salcette) में भी यही हुआ।

1560 ई० में गोआ में ईसाई धर्म न्यायालय (Institution of inquisition) की स्थापना की गई ताकि किसी भी प्रकार के धर्मद्रोह (Hersey) को दण्डित किया जा सके। 1542 ई० में पुर्तगाली गवर्नर मार्टिन डिसूजा के साथ प्रसिद्ध ज्यूस संत जेवियर भारत आया। मुगल शासक अकबर के दरबार में तीन जेसुइट मिशन आए। जेसुइटों को भ्रम • गया था कि अकबर मसीही मत स्वीकार करना चाहता है।
पुर्तगीजों को भारत का जापान के साथ व्यापार प्रारंभ करने का श्रेय भी दिया जाता है |है। वहाँ से ताँबा और चाँदी प्राप्त होती थी। पुर्तगीज मध्य अमेरिका से तम्बाकू, आलू और मक्का भारत लाए। उन्होंने ही भारत में प्रिंटिंग प्रेस (छपाई) की शुरुआत की। अनन्नाश, पपीता, बादाम, काजू, मूँगफली, शकरकन्द, काली मिर्च, लीची और सन्तरा, पुर्तगालियों की ही देन रही जिन्हें उन्होंने विभिन्न देशों से प्राप्त किया था। पुर्तगीज आधिपत्य की स्थापना से ही व्यापार में नौ-सैनिक शक्ति की महत्ता प्रमाणित हुई ।

                                            डच कौन थे और कैसे आये

डच नीदरलैण्ड या हालैण्ड के निवासी थे। पुर्तगीजों के बाद डच ही भारत आए। 1595-96 ई॰ में “कार्नेलियस हाउटमैन” के नेतृत्व में पहला डच अभियान दल पूर्वी जगत में पहुँचा। सुमात्रा पहुँचकर बाण्टम के राजा के साथ सन्धि करने में इस दल ने सफलता प्राप्त की। 1595 ई० और 1601 ई० के बीच डचों ने पूर्वी जगत की ओर 15 सामुद्रिक यात्रायें कीं। 1602 ई० में विभिन्न डच कम्पनियों को मिलाकर “यूनाइटेड ईस्ट इण्डिया कम्पनी आफ नीदरलैण्ड” के नाम से एक विशाल व्यापारिक संस्थान की स्थापना की गई। इस कम्पनी का मूल नाम VOC (Vereenigde Oost Indische Compagnic) था।

कम्पनी की देख-रेख के लिए 17 व्यक्तियों का एक बोर्ड बनाया गया। यह बोर्ड डच सरकार के आदेशों के अनुसार ही कम्पनी का संचालन करता था। कम्पनी की स्थापना के समय इसकी कुल प्रारंभिक पूँजी 65 लाख गिल्डर थी। कम्पनी को हालैण्ड सरकार द्वारा 21 वर्षो के लिए भारत और पूर्वी जगत के साथ व्यापार करने और आक्रमण एवं विजय करने के सम्बन्ध में व्यापक अधिकार प्रदान किए गए। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

                                                         डच व्यापार के विषय पर विशेषज्ञ

ओमप्रकाश जो डच व्यापार के विषय पर विशेषज्ञ माने जाते हैं, के अनुसार प्रारंभिक चरण में डच मूल रूप से काली मिर्च तथा अन्य मसालों के व्यापार तक ही रुचि रखते थे। ये मसाले मूलतः इण्डोनेशिया में मिलते थे इसलिए डच कम्पनी का वह प्रमुख केन्द्र बन गया था। 1605 ई० में डचों ने पुर्तगीजों से अम्बायना ले लिया तथा धीरे-धीरे मसाला द्वीप पुंज (इण्डोनेशिया) में उन्हीं को हराकर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया। उन्होंने जकार्ता जीतकर 1619 ई० में इसके खण्डहरों पर बैटेविया नामक नगर बसाया। लन्दन और दि हेग (हालैण्ड की राजधानी) में हुए सम्मेलनों (1611 ई० और 1613 से 1615 ई०) के फलस्वरूप डचों और अंग्रेजों के बीच 1619 ई० में एक मैत्रीपूर्ण सन्धि हो गई विस्तु हे वर्ष बाद ही फिर शत्रुता प्रारम्भ हो गई ।

                         10 अंग्रेजों और 9 जापानियों का क्रूरतापूर्ण वध करना 

1623 ई० में अम्वायना में 10 अंग्रेजों और 9 जापानियों का क्रूरतापूर्ण वध कर दिया गया। इस अम्बायना नरसंहार के बाद डचों ने मलय द्वीपपुंज में और अंग्रेजों ने भारत में अपने को सीमित कर देना शुरू किया। डचों का भारत में व्यापारिक केन्द्र सिमटने लगा और पूर्व एशिया में बैटेविया में केन्द्रित होता गया ।
डच नौसेना नायक वादेर हेग सूरत एवं मालाबार में असफल होने के बाद 1605 ई० में मसूलीपट्टम में प्रथम डच फैक्ट्री की स्थापना की।
दूसरी डच फैक्ट्री को पेत्तोपोली (निजामपत्तम) में स्थापित किया गया। 1610 ई० में डचों ने चन्द्रगिरि के राजा के साथ समझौता करके पुलीकट में एक अन्य फैक्ट्री की स्थापना की और इसे अपना मुख्यालय बनाया।

डचों ने यहाँ पर अपने स्वर्ण सिक्के पैगोड़ा ढाले । इचों ने 1616 ई० में सूरत में एवं 1641 ई० में विमलीपट्टम में फैक्ट्रियों की स्थापना की। बंगाल में प्रथम डच फैक्ट्री की स्थापना पीपली में सन् 1627 ई० में की गई। ई० में हुगली के निकट चिनसुरा में डचों ने अपनी कोठी स्थापित की। बंगाल में अग्रेजों की तरह डचों को भी अपनी फैक्ट्री की किलेबन्दी करने की आज्ञा मिली थी। विसुरा के डच किले को ‘गुस्तावुस फोर्ट’ के नाम से जाना जाता था।

1658 ई० में डचों ने कासिम बाजार, बालासोर, पटना और नेगापट्टम में अपनी फैक्ट्रियाँ स्थापित कीं। 1660 ई० में गोलकुण्डा में डच फैक्ट्री की स्थापना हुई। 1663 ई० में कोचीन में भी फैक्ट्री की स्थापना हुई। कोचीन के मुट्टा शासन से डच कम्पनी ने विशेष व्यापारिक सुविधाएं प्राप्त कीं जिनमें सबसे महत्वपूर्ण थी—पुड़ाकड़ (Purakkad) और क्रांगनूर (Crangnaur) के बीच के क्षेत्र में काली मिर्च का एकाधिकार।

                                                                   औरंगजेब का अधिकार

औरंगजेब ने 1664 ई० में डचों को 312% वार्षिक चुंगी पर बंगाल, बिहार और उड़ीसा में व्यापार करने का अधिकार दिया। 1690 ई० में पुलीकट के स्थान पर नेगापट्टम को डच गवर्नर का मुख्यालय बनाया गया। मालाबार तटवर्ती प्रदेशों में कोचीन, कन्नौर और वेनगुर्ला डचों के व्यापारिक केन्द्र थे। डच फैक्ट्रियों के प्रमुख जिन्हें फैक्टर कहा जाता था, को व्यापारियों के रूप में वर्गीकृत किया गया।
डचों ने मसालों के स्थान पर भारतीय कपड़ों के निर्यात को अधिक महत्व दिया। ये कपड़े कोरोमण्डल तट, बंगाल और गुजरात से निर्यात किए जाते थे। माल के स्तर को बनाए रखने तथा निम्न कोटि के माल की सप्लाई को रोकने के लिए 1650 के दशक में डच कम्पनी ने कासिम बाजार में स्वयं रेशम की चक्री का उद्योग स्थापित किया, जिसमें लगभग 3000 कारीगरों (Reelers) को वेतन पर रखा गया।

ओम प्रकाश के अनुसार यह प्रयास आधुनिक उत्पादन व्यवस्था के प्रारंभ की दृष्टि से उल्लेखनीय था। डयों द्वारा निर्यात की जाने वाली अन्य वस्तुओं में उत्तर प्रदेश और मध्य भारत से नील, मध्य भारत से कच्चा रेशम, बिहार और बंगाल से शोरा एवं नमक, गंगाघाटी से अफीम और बंगाल का कच्चा रेशम था। भारत से भारतीय वस्त्र को निर्यात की वस्तु बनाने का श्रेय डचों को जाता है। 1759 ई० में अंग्रेजों से बेडरा (बंगाल) के युद्ध में डच पराजित हुए। इस पराजय ने भारत से उनकी शक्ति समाप्त कर दी। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

डच भारत में व्यापारिक स्वार्थों से प्रेरित होकर आए थे। डच व्यापारिक व्यवस्था सहकारिता अर्थात् कार्टल (Cartel) पर आधारित थी। इस व्यवस्था का उल्लेख 1722 ई॰ के दस्तावेज में किया गया है जिसमें नेगापट्टम के डच गवर्नर और 6 तेलुगू व्यापारियों के बीच समझौते के विषय में स्पष्ट रूप से लिखा गया है। डच कम्पनी में साझेदारों को जितना अधिक लाभ दिया जाता था, वह वाणिज्य इतिहास में रिकार्ड माना जाता है। लगभग 200 वर्षों के इतिहास में डच कम्पनी ने औसत रूप से 18% लाभांश दिया था।

अंग्रेज के विषय में

भारत में अंग्रेजों का आगमन डचों के बाद हुआ। हालाँकि ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी से पहले ही हो चुकी थी। सितम्बर, 1599 ई० में लन्दन में कुछ व्यापारियों ने लार्ड मेयर की अध्यक्षता में एक सभा का आयोजन किया। इसमें पूर्वी द्वीप समूह के साथ व्यापार करने की योजनाएं तैयार की गईं। इन व्यापारियों ने पूर्व के देशों के साथ व्यापार करने के आशय से 1599 ई० में एक कम्पनी का गठन किया।इसका नाम ‘गवर्नर एण्ड कम्पनी आफ मर्चेन्ट्स आफ लन्दन ट्रेडिंग इन टू द ईस्ट इण्डीज’ रखा गया। इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम ने 31 दिसम्बर, 1600 ई० में एक आज्ञापत्र द्वारा इसे 15 वर्षों के लिए पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया। कम्पनी के प्रबन्ध के लिए एक समिति की व्यवस्था की गई।

इसमें एक निदेशक, एक उपनिदेशक और 24 सदस्य होते थे। इन्हें कम्पनी में शामिल सौदागरों की आम सभा द्वारा चुना जाता था। यही समिति बाद में ‘कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स’ या ‘निदेशक मण्डल’ के नाम से जानी गई। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

1609 ई0 का चार्टर

सन् 1603 ई० में महारानी एलिजाबेथ की मृत्यु के पश्चात् जेम्स प्रथम उनके उत्तराधिकारी और इंग्लैण्ड के सम्राट हुए। 1609 ई० में कम्पनी ने जेम्स प्रथम से नवीन व्यापारिक चार्टर प्राप्त कर लिया। इस चार्टर द्वारा कम्पनी के विशेषाधिकारों को शाश्वत बना दिया गया। किन्तु अभी भी व्यवसाय के राजसत्ता के लिए लाभप्रद होने की स्थिति में, तीन वर्ष की पूर्व सूचना पर कम्पनी को समाप्त किया जा सकता था।

सम्राट् के सन् 1615 ई० एवं 1624 ई० के पश्चात्वर्ती चार्टरों द्वारा प्रदत्त दण्डाधिकार से कम्पनी की स्थिति में और अधिक सुधार हुआ। 1601 ई० से 1612 ई० तक कम्पनी के मुनाफे की दर 20% प्रतिवर्ष रही। 1612 ई० में कम्पनी के दो लाख पौण्ड की पूँजी पर एक लाख पौण्ड मुनाफा हुआ और पूरी सत्रहवीं शताब्दी के दौरान मुनाफे की दर ऊंची रही। किसी भी गैर सदस्य को पूर्व के साथ व्यापार करने या मुनाफे में हिस्सा नहीं दिया जाता था ।

कम्पनी ने चार्ल्स द्वितीय को कर्ज के रूप में एक लाख सत्तर हजार पौण्ड दिए, बदले में सनदों की एक पूरी श्रृंखला प्राप्त की जिसके द्वारा उसके पुराने विशेषाधिकारों की पुष्टि कर दी गई और उसे किले बनाने, सेनायें रखने, पूरब की शक्तियों के साथ युद्ध व सन्धि करने तथा न्याय की व्यवस्था करने के अधिकार दे दिए गए।

कम्पनी के एकाधिकार के बावजूद अनेक अंग्रेज एशिया के साथ व्यापार करते रहे। वे अपने को स्वतंत्र सौदागर कहते थे, जबकि कंपनी उन्हें दस्तंदाज कहती थी। 1688 ई० में इंग्लैण्ड में क्रान्ति हुई, जिसमें जेम्स द्वितीय का तख्ता पलट दिया गया और विलयम तृतीय तथा उसकी बीवी मेरी को संयुक्त शासक बनाया गया। इस क्रान्ति के फलस्वरूप इंग्लैण्ड में संसद की सर्वोच्चता स्थापित हुई। इस सम्पूर्ण घटनाक्रम ने कंपनी के व्यापार पर प्रतिकूल प्रभाव डाला। हिंग पार्टी जो सत्ता में आई, वह कंपनी के व्यापारिक एकाधिकार के पक्ष में नहीं थी। फलतः इंग्लैण्ड में स्वदेशी प्रतिद्वन्द्वियों ने “न्यू कंपनी” नामक एक व्यापारिक संस्था का गठन कर लिया। इस प्रकार दोनों कंपनियों ने सुदूर पूर्व में व्यापार जारी रखा।

कंपनी अपने प्रतिद्वन्द्वियों से किसी भी प्रकार के समझौते के लिए तैयार नहीं थी। इसने शीघ्र ही अपने अधिकार का प्रयोग करते हुए न्यू कंपनी के “रेडविज” नामक एक व्यापारिक जहाज को रोक दिया। परिणामतः 19 जनवरी, 1694 ई० को ‘हाउस आफ कामन्स’ में एक प्रस्ताव पारित किया गया कि जब तक संसद कानून द्वारा मनाही न करे तब तक इंग्लैण्ड के सभी नागरिकों को पूरव के साथ व्यापार करने के बराबर अधिकार होंगे। इसके बावजूद दोनों कंपनियाँ व्यापार-विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील. Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

इंग्लैण्ड की सरकार द्वारा सन् 1698 ई० में वित्तीय संकट से उबरने के लिए व्यापार विशेषाधिकार को नीलामी पर लगा दिया गया। “न्यू कम्पनी” ने बीस लाख पौण्ड का ऋण देकर व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त कर लिया। यद्यपि “न्यू कंपनी” को राजनीतिक संरक्षण प्राप्त था, किन्तु वह व्यापार तथा व्यवसाय के क्षेत्र में पुरानी कंपनी के कुशल तथा अनुभवी प्रतिद्वद्वियों का मुकाबला करने में असमर्थ थी । फलतः “न्यू कंपनी” को असाधारण हानि हुई। अब “न्यू कंपनी” के समक्ष इस कठिनाई से मुक्त होने का एकमात्र विकल्प पुरानी कंपनी से समझौता करना था। लाई गोडोल्फिन के हस्तक्षेप से दोनों कंपनियों के बीच समझौता हो गया।

1694 ई० के हाउस आफ कामन्स के प्रस्ताव के अन्तर्गत 1698 ई० में दो अन्य नई कंपनियाँ कायम की गई। इनमें से एक “जनरल सोसायटी” तथा दूसरी “इंगलिश कंपनी ट्रेडिंग इन द ईस्ट” के नाम से जानी गई। इन दोनों कंपनियों ने भी 1702 ई० में पुरानी कंपनी से विलय का प्रस्ताव किया। अंततः 1708 ई० में इन दोनों नई कंपनियों का भी मूल कंपनी में विलय कर लिया गया। इस प्रकार सन् 1688 ई० में बनी “न्यू कंपनी” 1698 ई० में बनी “जनरल सोसायटी” तथा 1698 में ही बनी “इंग्लिश कंपनी ट्रेडिंग इन द ईस्ट” नामक कंपनियों 1708 ई० में मूल कंपनी से संयुक्त हो गई तथा “द यूनाइटेड कंपनी ऑफ मर्चेन्ट्स आफ लंदन ट्रेडिंग टू द ईस्ट इंडीज” का जन्म हुआ। कंपनी का यह नाम 1833 ई० तक कायम रहा। 1833 ई० के चार्टर द्वारा इसका संक्षिप्त नाम “ईस्ट इण्डिया कंपनी कर दिया गया।

कम्पनी की व्यापारिक सफलताएं अंग्रेज कम्पनी की प्रारंभिक समुद्री यात्रायें सुमात्रा, बावा एवं मलक्का के लिए हुई, जिनका उद्देश्य था मसाले के व्यापार का एक हिस्सा प्राप्त करना। 1601 ई० में कम्पनी के जहाज इण्डोनेशिया के मसाला द्वीप पहुँचे।

भारत में व्यापारिक कोठियाँ कायम करने का पहला प्रयास 1608 ई० में हुआ। कैप्टन हॉकिन्स के नेतृत्व में ट्रेक्टर नामक पहला अंग्रेजी जहाज 1608 ई० में सूरत के बन्दरगाह पर आकर रुका। हॉकिन्स पहला अंग्रेज था जिसने समुद्र के रास्ते भारत की भूमि पर कदम रखा। हॉकिन्स जो तुर्की भाषा बोल सकता था, अकबर के नाम जेम्स का पत्र लेकर मुगल बादशाह जहाँगीर के दरबार में पहुँचा। दरबार में उसने फारसी भाषा में बात की। जहाँगीर ने उसे 400 का मनसब प्रदान किया। हॉकिन्स ने अंग्रेजों के लिए सूरत में एक फैक्ट्री खोलने की अनुमति माँगी। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

प्रारम्भ में अनुमति प्रदान कर दी गई, किन्तु पुर्तगीजों के शत्रुतापूर्ण कारनामों और सूरत के सौदागरों के विरोध के कारण यह अनुमति रद्द कर दी गई। सन् 1611 ई० में कैप्टन मिडल्टन ने स्वाल्ली में पुर्तगालियों के जहाजी बेड़े को परास्त किया। पुर्तगालियों को पराजित करने के कारण जहाँगीर अंग्रेजों से प्रभावित हुआ और 1613 ई० में उसने अंग्रेजों को सूरत में स्थायी कारखाना स्थापित करने की अनुमति दे दी। इसके पहले 1611 ई० में मसूलीपट्टम (मछलीपट्टम) में अंग्रेजों ने एक व्यापारिक कोठी कायम की थी। यह गोलकुण्डा राज्य का मुख्य बन्दरगाह था।

यहाँ स्थानीय रूप में चुने हुए फुटकर बेचने के कपड़ों को खरीदकर वे फारस एवं बण्टम भेजते थे। लेकिन यहाँ डचों का विरोध होने लगा, स्थानीय अधिकारी भी बार-बार रुपयों की मांग करने लगे। इन बातों से तंग आकर अंग्रेजों ने 1626 ई० में अरमागांव में एक दूसरी कोठी खोली अरमागाँव पुलीकट की डच बस्ती के कुछ मील उत्तर था यहाँ भी उन्हें विविध असुविधाओं का सामना करना पड़ा। इसलिए उन्होंने फिर अपना ध्यान मसूलीपट्टम की ओर फेरा।

1632 ई० में गोलकुण्डा के सुल्तान ने उन्हें एक सुनहला फरमान (Golden Ferman) दिया। इसके अनुसार 500 पैगोडा सालाना कर देने पर उन्हें गोलकुण्डा राज्य के बन्दरगाहों में स्वतंत्रतापूर्वक व्यापार करने की आज्ञा मिल गई। ये शर्तें सन् 1634 ई० के एक दूसरे फरमान में दुहरा दी गई। किन्तु इससे अंग्रेज व्यापारियों का स्थानीय अधिकारियों की मांगों से पिण्ड न छूटा। इसलिए वे एक अधिक लाभप्रद स्थान की खोज में लगे रहे। सन् 1639 ई० में फ्रांसिस डे ने चन्द्रगिरि के राजा से मद्रास को पट्टे पर लिया तथा वहाँ एक किलाबन्द कोठी बनाई। इस किलाबन्द कोठी का नाम “फोर्ट सेंट जार्ज” पड़ा। फोर्ट सेंट जार्ज शीघ्र ही कोरोमण्डल समुद्र तट पर अंग्रेजी बस्तियों के मुख्यालय के रूप में मसूलीपट्टम से आगे निकल गया।
                                                     टामस रो जहाँगीर के दरबार
1615 ई० में सर टामस रो जहाँगीर के दरबार में आया और अंग्रेजी व्यापार के लिए कुछ सुविधाएँ प्राप्त की। 1623 ई० तक अंग्रेजों ने सूरत, भड़ौच, अहमदाबाद, आगरा और मसूलीपट्टम में अपनी फैक्ट्रियाँ स्थापित कर ली थीं। 1630 ई० में मैड्रिड की संधि हुई, जिसके अनुसार पूर्वी व्यापार में अंग्रेज़ों एवं पुर्तगालियों के बीच संघर्ष को अन्त करने का निश्चय किया गया। 1634 ई० में सूरत कोठी के अंग्रेज अध्यक्ष तथा गोआ के पुर्तगाली वायसराय ने मिलकर एक समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसके द्वारा भारतीय व्यापार में अंग्रेजों एवं पुर्तगालियों के व्यापारिक सहयोग को सुरक्षा प्राप्त हुई।

1642 ई० में पुर्तगाल के शासक जॉन चतुर्थ ने तथा इंग्लैण्ड के राजा चार्ल्स प्रथम ने सूरत-गोआ समझौते की पुष्टि करते हुए दोनों देशों के बीच स्वतंत्र व्यापार के स्थापनार्थ एक सन्धि पर हस्ताक्षर किए। 1661 ई० में इंग्लैण्ड के राजा चार्ल्स द्वितीय का विवाह पुर्तगाली राजकुमारी कैथरीन के साथ हुआ। इस अवसर पर पुर्तगालियों ने चार्ल्स द्वितीय को दहेज के रूप में बम्बई का द्वीप प्रदान किया। 1668 ई० में चार्ल्स द्वितीय ने बम्बई का द्वीप 10 पौण्ड वार्षिक किराया लेकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को दे दिया। 1687 ई० में सूरत की जगह बम्बई अंग्रेजों की मुख्य व्यापारिक बस्ती बन गई।

अंग्रेजों ने 1630 ई० के बाद उत्तर-पूर्व में अपने प्रभाव में वृद्धि की। 1633 ई० में उड़ीसा में महानदी के मुहाने पर स्थित हरिहरपुर में तथा बालासोर में व्यापारिक कोठियाँ कायम की गई। 1651 ई० में एक कोठी हुगली में बृजमैन के अधीन खोली गई। इसके बाद पटना, ढाका और कासिम बाजार में भी कोठियाँ खोली गई। इस समय बंगाल में अंग्रेजी व्यापार की मुख्य वस्तुएं थीं- रेशम, फुटकर बेचने के सूती कपड़े, शोरा और चीनी किन्तु कोठी के अनियमित व्यक्तिगत व्यापार के कारण कम्पनी को शुरू में कुछ समय तक लाभ बहुत कम हुआ।

                              फोर्ट सेंट जार्ज के अधीन

1658 ई० में बंगाल, बिहार, उड़ीसा और कोरोमण्डल समुद्र तट की सभी बस्तियाँ फोर्ट सेंट जार्ज के अधीन कर दी गई। 1669 ई० में सर जार्ज औक्सनडेन के उत्तराधिकारी के रूप में जेराल्ड ऑगियर सूरत का प्रेसीडेंट और बम्बई का गवर्नर बना। उसने संचालक समिति को लिखा कि “अब समय का तकाजा है कि आप अपने हाथों में तलवार लेकर अपने सामान्य व्यापार का प्रबन्ध करें। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

” कुछ ही वर्षों में डाइरेक्टरों ने कम्पनी की नीति में इस परिवर्तन को स्वीकार कर लिया तथा दिसम्बर, 1687 ई० में मद्रास के प्रधान को लिखा कि “आप असैनिक और सैनिक शक्ति का ऐसा शासन कायम कीजिए तथा उसकी प्राप्ति के लिए इतनी विशाल आय निकालिए और बनाये रखिए जो सदैव  में एक विशाल, सुगठित, सुरक्षित अंग्रेजी राज्य की नींव बन सके।

” मुख्यतः सर जोशुआ चाइल्ड इस नवीन नीति के लिए उत्तरदायी था, यद्यपि यह उसके साथ शुरू नहीं हुई। इस नीति का अनुसरण कर दिसम्बर, 1688 ई० में उसके भाई सर जॉन चाइल्ड बम्बई और पश्चिमी समुद्र तट के मुगल बन्दरगाहों पर घेरा डाला। कई मुगल जहाजों पकड़ लिया तथा ‘मक्का जाने वाले धर्मयात्रियों को बन्दी बनाने के लिए अपने कप्तान को लाल सागर और फारस की खाड़ी भेजा, परन्तु औरंगजेब की सेना ने उन्हें पराजित किया। अन्ततः सर जॉन चाइल्ड को औरंगजेब से माफी मांगनी पड़ी।

अंग्रेजों ने सभी पकड़े गए जहाजों को लौटा दिया तथा हरजाने के रूप में 112 लाख रुपये देना स्वीकार किया। बंगाल में अंग्रेजी शक्ति का विकास
बंगाल में सर्वप्रथम अंग्रेजों को व्यापारिक छूट 1651 ई० में प्राप्त हुई जब गेबियन बांटन ने जो कि बंगाल के सूबेदार शाहशुजा के साथ दरबारी चिकित्सक के रूप में रहता था, एक लाइसेंस अंग्रेजी कम्पनी के लिए प्राप्त किया। इसके द्वारा 3000 रुपया वार्षिक कर के बदले में कम्पनी को बंगाल, बिहार, उड़ीसा में मुफ्त व्यापार करने की अनुमति दी गई।

1656 ई० में एक दूसरा ‘निशान’ मंजूर किया गया जिसके तहत किसी बाधा के अंग्रेजों को व्यापार करने की अनुमति की पुनः पुष्टि की गई, किन्तु शुजा के उत्तराधिकारियों ने इस ‘निशान’ को अपने ऊपर लाजमी नहीं समझा। उन्होंने इस बात की माँग की कि अंग्रेज अपने बढ़ते हुए व्यापार के कारण दूसरे सौदागरों के समान ही कर दें। कम्पनी ने शाइस्ता खाँ से 1672 ई० में एक फरमान प्राप्त किया, जिसमें उसे कर अदा करने से मुक्ति मिल गई।

                                            बादशाह औरंगजेब ने 1680 ई० का फरममान

बादशाह औरंगजेब ने 1680 ई० में एक फरमान जारी किया, जिसमें यह आदेश दिया गया कि कोई चुंगी के लिए कम्पनी के आदमियों को तंग न करे और न उसके व्यापार में रुकावट डाले। इसमें यह भी आदेश था कि अंग्रेजों से 2% चुंगी के अतिरिक्त 1V2% जजिया के रूप में भी लिया जायेगा। कम्पनी ने अन्त में शक्ति के द्वारा अपनी रक्षा करने निर्णय किया। अक्टूबर, 1686 ई० में अंग्रेजों ने हुगली को लूट लिया, परन्तु औरंगजेब द्वारा पराजित होने पर वे हुगली से भाग खड़े हुए। इसे छोड़ वे नदी के बहाव की ओर चलकर नदी के मुहाने पर स्थित एक ज्वरमस्त द्वीप में पहुंचे। यहाँ से जाब चानोंक ने समझौते की बात-चीत शुरू कर दी। परिणामस्वरूप अंग्रेजों को 1687 ई० की शरद ऋतु में सूतानाती में लौट आने की आज्ञा मिल गई। जाब चानक ने अगस्त 1690 ई० में सूतानाती में एक अंग्रेजी कोठी स्थापित की। इस प्रकार ब्रिटिश भारत की भावी राजधानी की नींव पड़ी।

फरवरी, 1691 ई० में बंगाल के सूबेदार शाइस्ता खाँ के उत्तराधिकारी इब्राहिम खाँ ने एक फ़रमान जारी किया, जिसके अनुसार अंग्रेजों को 3000 रुपये वार्षिक कर के बदले चुंगी कर की अदायगी से मुक्ति मिल गई। बर्दवान जिले के एक जमींदार शोभा सिंह के विद्रोह के कारण अंग्रेजों को 1696 ई० में अपनी नई कोठी की किलेबन्दी की अनुमति मिल गई। बंगाल के सूबेदार अजीम उस-सान ने 1698 ई० में अंग्रेजों को सूतानाती, कलिकाता और गोविन्दपुर नामक तीन गांवों की जमींदारी प्रदान की, जिसके बदले में उन्हें इन गांवों के मालिकों को 1200 रुपये देने पड़े। इंग्लैण्ड के सम्राट् के सम्मान में उक्त किलाबन्द व्यावसायिक प्रतिष्ठान का नाम फोर्ट विलियम रखा गया। सर चार्ल्स आयर इसका पहला प्रेसीडेण्ट हुआ। सन् 1700 ई० में यह पहला प्रेसीडेन्सी नगर घोषित किया गया जो सन् 1774 ई० से 1911 ई० तक ब्रिटिश भारत की राजधानी रहा।

नारिश मिशन (1698 ई०) 1698 ई० में इंग्लैण्ड के राजा विलियम तृतीय ने एक अन्य कम्पनी कायम की, जो इंग्लिश कम्पनी ट्रेडिंग इन द ईस्ट के नाम से जानी गई। इस कम्पनी ने अपने लिए व्यापारिक सुविधाएं प्राप्त करने के उद्देश्य से सर विलियम नारिश को औरंगजेब के दरबार में राजदूत के रूप में भेजा। किन्तु इसका कोई फल न निकला। ब्रिटिश मंत्रिमण्डल से कुछ दबाव पड़ने पर दोनों कम्पनियों ने 1702 ई० में संयुक्त होने का निश्चय किया, जो 1708-09 ई० में गोडोलफिन के अर्ल के फैसले के अनुसार कार्य रूप में परिणत हुआ।

                                          जान सरमन मिशन (1715 ई०)


जान सरमन मिशन (1715 ई०) कम्पनी ने सन् 1715 ई० में जान सरमन की अध्यक्षता में कलकत्ता से एक दूतमण्डल मुगल दरबार में भेजा। इस प्रतिनिधिमण्डल ने कम्पनी को औरंगजेब के समय से प्राप्त विशेषाधिकारों के अतिरिक्त बंगाल में सिक्का निकालने तथा कलकत्ता के नजदीक के 38 गाँवों को खरीदने की आज्ञा की याचना की। इस दूतमण्डल में एडवर्ड स्टीफेंसन विलियम हैमिल्टन नामक सर्जन और ख्वाजा सेर्हृद नामक एक आर्मीनियन दुभाषिया थे। हैमिल्टन ने दशाह फर्रुखसियर की एक दर्दनाक बीमारी छुड़ाने में सफलता प्राप्त की। फलतः फर्रुखसियर अंग्रेजों से प्रसन्न हो गया। उसने 1717 ई० में एक शाही फरमान जारी किया जिसके तहत कम्पनी को निम्नलिखित विशेषाधिकार प्राप्त हुए 1. 3,000 रु० वार्षिक कर के बदले में कम्पनी को बंगाल में मुक्त व्यापार करने की छूट मिल गई। 2. 10,000 रु० वार्षिक कर देने के बदले में कम्पनी को सूरत में सभी करों से मुक्ति मिल गई।

. बम्बई में कम्पनी द्वारा ढाले गये सिक्कों के सम्पूर्ण मुगल राज्य में चलाने की आज्ञा मिल गई। ब्रिटिश इतिहासकार और्म ने इसे “कम्पनी का मैग्नाकार्टा” (महान अधिकार पत्र) कहा है। बंगाल के सुबेदार मुर्शिद कुली जाफर खाँ ने अंग्रेजों को 38 गाँवों को दिए जाने का विरोध किया। 1717 ई० के फरमान से अंग्रेजों को जो अधिकार प्राप्त हुए, उससे उनको चहुत लाभ हुआ और न केवल बंगाल में बल्कि पूरे भारत में अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर प्राप्त हो गया।

                                               डेन अंग्रेजों के बाद 1616 ई० में भारत आए
डेन अंग्रेजों के बाद डेन 1616 ई० में भारत आए। तंजौर जिले के ट्रांकेबोर में 1620 ई० में उन्होंने अपनी पहली फैक्ट्री स्थापित की। इसके बाद बंगाल के सीरमपुर में 1676 ई० में उन्होंने अपनी दूसरी फैक्ट्री स्थापित की। 1745 ई० में उन्होंने अपनी सभी फैक्ट्रियाँ ब्रिटिश कम्पनी को बेच दीं और वे भारत से चले गए।
एक स्वीडिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना सन् 1731 ई० में हुई। परन्तु उन्होंने सम्राट लुई XIV के समय उसके प्रसिद्ध मंत्री कोलबर्ट के प्रयासों के परिणामस्वरूप 1664 ई० एक फ्रांसीसी व्यापारिक कम्पनी “कम्पनी द इण्ड ओरिएण्टल ” की स्थापना हुई।

                                               फ्रांसीसी कम्पनी का निर्माण

फ्रांसीसी कम्पनी का निर्माण सरकार द्वारा हुआ और इसका सारा खर्च सरकार ही वहन करती थी। फ्रांसीसी पहले मेडागास्कर द्वीप में पहुँचे थे, परन्तु वहाँ उपनिवेश स्थापित करने में असफल रहे। फ्रांस से एक दूसरा दल 1667 ई. में चला। इसका नायक फ्रैंकोकरो था, इसके साथ इस्फहान का निवासी मरकारा भी था। भारत में फ्रांसीसियों की पहली कोठी कोकैरो द्वारा सन् 1668 ई० में सूरत में स्थापित हुई। मस्कारा गोलकुण्डा के सुल्तान से एक अधिकार पत्र प्राप्त कर 1669 ई० में मसूलीपट्टम में दूसरी फ्रांसीसी कोठी स्थापित करने में सफल हुआ।

1672 ई० में फ्रांसीसियों ने मद्रास के निकट सानथोमी को ले लिया लेकिन, अगले साल उनका जल सेनापति “दी ला हे” गोलकुण्डा के सुल्तान और डचों की सम्मिलित सेना द्वारा पराजित हुआ तथा डचों को सानथोमी देने को बाध्य हुआ। इसी बीच 1673 ई० में कम्पनी के निदेशक फ्रैंको मार्टिन और वेलांग द लेस्पिने (यह गैर पेशेवर फौजी सिपाही था जो एडमिरल “दी ला हे” के साथ आया था) ने बलिकोंडापुरम् के मुस्लिम सूबेदार शेर खाँ लोदी से एक छोटा गाँव प्राप्त करके एक फ्रांसीसी वस्ती स्थापित की, जिसे पाण्डिचेरी के नाम से जाना जाता है। यह पूरी तरह किलाबन्द थी। 1674 ईo में फ्रैंको मार्टिन इस बस्ती का प्रमुख हुआ। अंग्रेज समर्थित डचों ने 1693 ई० में फ्रांसीसियों से पाण्डिचेरी ले ली, पर 1697 ई० में रिजविक की संधि द्वारा इसे वापस लौटा दिया। 1706 ई० तक मार्टिन यहाँ का गवर्नर रहा। इस समय पाण्डिचेरी की जनसंख्या करीब 40 हजार थी जबकि कलकत्ता की 22 हजार बंगाल के सूबेदार शाइस्ता खाँ ने 1674 ई० में फ्रांसीसियों को एक जगह दी जहाँ 1690-92 ई० में उन्होंने चन्द्रनगर की प्रसिद्ध फ्रांसीसी कोठी बनाई।

                                   फ्रांसीसी कम्पनी का “इण्डीज की चिर स्थायी कम्पनी” के रूप में पुनः निर्माण

जून 1720 ई० में फ्रांसीसी कम्पनी का “इण्डीज की चिर स्थायी कम्पनी” के रूप में पुनः निर्माण हुआ, तब 1720 ई० और 1742 ई० के बीच लिनो और ड्यूमा के बुद्धिमत्तापूर्ण शासन में समृद्धि इनके पास लौट आई। फ्रांसीसियों ने 1721 ई० में मारीशस, 1725 ई० में मालाबार समुद्र तट पर स्थित माही और 1739 ई० में कारीकल पर कब्जा कर लिया। पाण्डिचेरी को 1701 ई० में पूर्व की फ्रांसीसियों की सभी बस्तियों का मुख्यालय बनाया गया और फ्रैंको मार्टिन को भारत में फ्रांसीसी मामलों का महानिदेशक बनाया गया। फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले के समय में फ्रांसीसी प्रभुत्व की स्थापना हुई।
                                                    अंग्रेज-फ्रांसीसी संघर्ष (कर्नाटक के युद्ध)
व्यापार से आरम्भ होकर अंग्रेजी तथा फ्रांसीसी कम्पनियाँ भारत की राजनीति में अपरिहार्य रूप से उलझ गई। करीब 20 वर्षों तक चले इस लम्बे संघर्ष के फलस्वरूप भारत में फ्रांसीसी शक्ति अंतिम रूप से टूट गई। इस संघर्ष ने सदा के लिए यह निर्णय कर दिया कि अंग्रेज ही भारत के स्वामी होंगे, फ्रांसीसी नहीं। इन कारणों से कर्नाटक के युद्धों का भारतीय इतिहास में बहुत महत्व है। 14

आधुनिक भारत

इस समय हैदराबाद में निजाम-उल-मुल्क आसफ जाह अर्द्ध-स्वतंत्र शासक था। कोरोमण्डल तट और उसके पीछे की भूमि जिसे कर्नाटक कहा जाता था, मुगल दक्कन का एक सूबा था। यह निजाम के अधिकार के अन्तर्गत आता था। जिस प्रकार निजाम व्यावहारिक रूप से दिल्ली की सरकार से स्वतंत्र हो गया था, उसी प्रकार कर्नाटक का नायब सूबेदार जिसे इस क्षेत्र का नवाब कहा जाता था, ने अपने को दक्कन के नवाब के नियंत्रण से मुक्त कर लिया था।

कर्नाटक के नवाब सआदत उल्ला खाँ ने अपने भतीजे दोस्त अली को निजाम की मंजूरी के बिना ही अपना उत्तराधिकारी घोषित करके अपने ओहदे को वंशानुगत बना दिया था। सन् 1741 ई० में मराठों ने कर्नाटक पर आक्रमण किया और यहाँ के शासक दोस्त अली को मार डाला एवं उसके दामाद चन्दा साहब को बन्दी बना लिया। किसी भी शासक के अभाव में निजाम आसफजाह ने अपने निकट सम्बन्धी अनवरुद्दीन को कर्नाटक का नवाबः बना दिया। 1741 ई० में कर्नाटक पर मराठा आक्रमण के बाद इस क्षेत्र में अव्यवस्था की स्थिति थी, फिर भी अंग्रेज और फ्रांसीसी शान्तिपूर्वक व्यापार में संलग्न रहे। यही नहीं, 1740 ई० में मेरिया थेरेसा के उत्तराधिकार को लेकर (आस्ट्रियाई उत्तराधिकार के युद्ध में दोनों प्रतिद्वंद्वियों के भाग लेने के कारण) एवं अमेरिकी उपनिवेश के झगड़े को लेकर यूरोप में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में युद्ध चल रहा था, फिर भी फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने भारत में शान्ति बनाये रखने के उद्देश्य से ब्रिटिश अधिकारियों से सम्पर्क स्थापित किया, लेकिन अंग्रेज अधिकारियों द्वारा ऐसी किसी तटस्थता के बारे में कोई भी बातचीत नहीं की गई।

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48 ई०)


कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48 ई०) यह युद्ध आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध का विस्तार मात्र था। गृह सरकारों की आज्ञा के विरुद्ध ही दोनों दलों ने 1746 ई० में युद्ध आरम्भ कर दिए। युद्ध की पहल अंग्रेजों की तरफ से हुई।

बारनैट के नेतृत्व में अंग्रेजी नौसेना ने कुछ फ्रांसीसी जलपोत पकड़ लिए। डूप्ले ने कर्नाटक के नवाब से अपने जहाजों की सुरक्षा की प्रार्थना की, लेकिन अंग्रेजों ने नवाब की किसी बात पर गौर नहीं किया। परिणामस्वरूप डूप्ले ने मारीशस के फ्रांसीसी गवर्नर ला वूडने से सहायता मांगी। ‘ला बूहोंने अपने 3000 सैनिकों के बेड़े के साथ कोरोमण्डल तट पर पहुँच गया और मद्रास पर अधिकार कर लिया। फ्रांसीसियों ने भूमि और समुद्र दोनों में घेरा डाल दिया।
बूडोंने का विचार अंग्रेजों से फिरौती लेने का था। उसने 40 हजार पौण्ड लेकर मद्रास अंग्रेजों को लौटा दिया, लेकिन डूप्ले ने नगर को पुनः जीत लिया। फ्रांसीसियों द्वारा मद्रास को घेर लिए जाने के बाद अंग्रेजों ने नवाब का संरक्षण चाहा। नवाब ने फ्रांसीसियों को मद्रास का घेरा उठा लेने को कहा, लेकिन डूप्ले ने कूटनीति का प्रयोग करते हुए कहा कि वह मद्रास से अंग्रेजों को हटाकर नवाब को सौंप देगा। नवाब को डूप्ले के कथन में शंका दिखाई दी, जिसके कारण युद्ध अवश्यंभावी हो गया। सेंटथोमे का युद्ध (1748 ई०) कर्नाटक के युद्ध में यह सर्वप्रमुख युद्ध है। यह युद्ध फ्रांसीसी सेना एवं नवाब.आगमन

अनवरुद्दीन की सेना के बीच लड़ा गया। कैप्टन पैराडाइज के अधीन एक छोटी सी फ्रांसीसी सेना ने, जिसमें 230 फ्रांसीसी तथा 700 भारतीय सैनिक थे, महफूज खाँ के नेतृत्व वाली नवाब की 10 हजार की भारतीय सेना को पराजित कर दिया। इस युद्ध से यह स्पष्ट हो गया कि घुड़सवार सेना की अपेक्षा तोपखाना श्रेष्ठ है तथा एक छोटी अनुशासित फौज मध्यकालीन बड़ी फौज पर भारी पड़ती है। इस युद्ध का महत्व इस बात में भी है कि इससे नौसैनिक शक्ति की महत्ता स्थापित हुई। यूरोपीय अनुशासित सेना की उत्कृष्टता सामने आई और भारतीय राजनीति का खोखलापन स्पष्ट हो गया।Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 
                                       यूरोप में ए ला शापेल की संधि (1748 ई०
यूरोप में ए ला शापेल की संधि (1748 ई०) से आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हो गया, जिसके कारण कर्नाटक का प्रथम युद्ध भी समाप्त हो गया। इस संधि से मद्रास अंग्रेजों को तथा अमेरिका में लुईवर्ग फ्रांसीसियों को वापस मिल गए। इस तरह युद्ध के प्रथम दौर में दोनों दल बराबर रहे। कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (1749-54 ई०) Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

निजामुलमुल्क आसफजाह की मृत्यु 1748 ई० में हो गई, जिससे उत्तराधिकार के लिए संघर्ष प्रारम्भ हुआ। इसी समय चन्दा साहब को मराठों द्वारा रिहा कर दिया गया। निजाम का पुत्र नासिरजंग उसका उत्तराधिकारी बना, परन्तु उसके भांजे मुजफ्फरजंग ने उसके इस दावे को चुनौती दी। दूसरी ओर कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन तथा उनके बहनोई चन्दा साहब के बीच विवाद प्रारम्भ हुआ। डूप्ले ने इस अनिश्चित अवस्था से राजनैतिक लाभ उठाने की सोची तथा मुजपफरजंग को हैदराबाद का निजाम तथा चन्द्रा साहब को कर्नाटक का नवाब बनाने के लिए अपनी सेनाओं द्वारा सहायता देने का वचन दिया।

अंबूर का युद्ध ( 1749)

अम्बूर का युद्ध (1749 ई०) मुजफ्फरजंग, चन्दा साहब और डूप्ले की संयुक्त सेनाओं ने 1749 ई० में कर्नाटक पर आक्रमण कर आबूर की लड़ाई में अनवरुद्दीन को पराजित कर मार डाला। अनवरुद्दीन का पुत्र एवं उत्तराधिकारी मुहम्मद अली ने भागकर त्रिचनापल्ली के दुर्ग में शरण ली।

कर्नाटक का शेष भाग चन्दा साहब के अधिकार में आ गया। इन्होंने अर्काट को अपनी राजधानी बनाकर शासन करना प्रारम्भ किया। चन्दा साहब ने फ्रांसीसियों को पांडिचेरी के पास 80 गाँवों का अनुदान दिया। डूप्ले ने चन्दा साहब को त्रिचनापल्ली का घेरा डालने को कहा। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 


इसी बीच अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों की बढ़ती शक्ति को देखकर निजाम पद पर नासिरजंग का पक्ष लिया। नासिरजंग ने अंग्रेजों की सहायता से दिसम्बर, 1750 ई० में कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया। जिंजी नदी के तट पर इसने चन्दा साहब, मुजफ्फरजंग व झांसीसी संयुक्त सेना को पराजित कर दिया। लेकिन इसी समय नासिरजंग को सेना ने विद्रोह कर दिया, जिसमें नासिरजंग मारा गया। डूप्ले ने तुरन्त मुजफ्फरजंग को निजाम बना दिया, बदले में उसने फ्रांसीसी कम्पनी को 50 लाख रुपये तथा सैनिकों को 5 लाख रुपये दिए। डूप्ले को 20 लाख रुपये तथा 1 लाख रुपये वार्षिक को जागीर मिली ।

एक फ्रांसीसी अधिकारी बस्सी अपनी संरक्षता में मुजफ्फरजंग को पांडिचेरी से ले गया, पर रास्ते में ही कुछ पठानों ने उसकी हत्या कर दी। बस्सी ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए निजाम के दूसरे बेटे सलावतजंग को निजाम बना दिया। अंग्रेजों के लिए यह मुश्किल था कि त्रिचनापल्ली से मुहम्मद अली को कैसे वापस लाया जाए, क्योंकि चन्दा साहब की फौज का घेरा पड़ा हुआ था। इसी समय एक अंग्रेज क्लर्क क्लाइव ने यह सुझाव दिया कि यदि अर्काट पर घेरा डाला जाए तो चन्दा साहब त्रिचनापल्ली से हट जायेगा और हुआ भी यही । यहीं से क्लाइव की अंग्रेज कम्पनी में उन्नति का सिलसिला प्रारम्भ होता है।

1752 ई० में मराठा सरदार मुरारी राव के सहयोग से उसने अर्काट पर आक्रमण कर दिया और चन्दा साहब के पुत्र राजा साहब के नेतृत्व वाली सेना को पराजित कर दिया। इसी बीच मेजर लारेंस ने चन्दा साहब से त्रिचनापल्ली का घेरा उठाने को कहा। चन्दा साहब त्रिचनापल्ली से भाग गया, लेकिन उसे तंजौर के राजा ने मार डाला। इस प्रकार मुहम्मद अली कर्नाटक का नवाब बन गया। इस बीच डूप्ले को फ्रांसीसी सरकार ने 1754 ई० में वापस बुला लिया और गोडेहू को पांडिचेरी का गवर्नर बनाकर भेजा। गोडेहू ने अंग्रेजों से पांडिचेरी की संधि कर ली। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

पांडिचेरी की संधि (1755 ई०)



इस संधि के द्वारा अंग्रेजों और फ्रांसीसियों ने मुगल सम्राट् या अन्य भारतीय नरेशों द्वारा दी गई उपाधियों को त्याग दिया तथा भारतीय नरेशों के झगड़ों में हस्तक्षेप न करने का वादा किया। दोनों कम्पनियों को अपने-अपने क्षेत्र वापस मिल गए। इस संधि में यह. भी व्यवस्था थी कि बस्सी हैदराबाद में ही रहेगा। इस संधि के सन्दर्भ में डूप्ले ने लिखा कि गोडेहू ने अपने देश के विनाश और सम्मान पर हस्ताक्षर किए। Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

इस प्रकार कर्नाटक युद्ध का दूसरा दौर भी अनिश्चित रहा, परन्तु स्थल पर अंग्रेजी सेना की प्रधानता सिद्ध हुई तथा उनका प्रत्याशी मुहम्मद अली कर्नाटक का नवाब बना । हैदराबाद में अभी भी फ्रांसीसियों की अवस्था सुदृढ़ रही तथा उन्होंने सूबेदार सलावतजंग से उत्तरी सरकार के चार जिले मुस्तफानगर, एल्लौर, राजमुंद्री और चिकाकोल प्राप्त कर लिए।
कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1756-63 ई०)
पांडिचेरी की संधि अस्थायी थी, क्योंकि इसका अनुसमर्थन दोनों देशों की सरकारों द्वारा किया जाना था। लेकिन इसी बीच 1756 ई० में यूरोप में सप्तवर्षीय युद्ध प्रारम्भ हो गया जिससे पुनः अंग्रेज और फ्रांसीसी एक-दूसरे के विरोध में आ गए तथा 1757 ई० में एक-दूसरे के स्थानों पर आक्रमण करना शुरू कर दिया। दक्षिण में फ्रांसीसियों ने त्रिचनापल्ली को लेने का असफल प्रयत्न किया। परन्तु कर्नाटक के अधिकांश भागों पर उनका अधिकार हो गया। 1757 ई० में अंग्रेजों ने चन्द्रनगर, बालासोर, कासिम बाजार तथा पटना की फ्रांसीसी फैक्ट्रियों पर अधिकार कर लिया।
युद्ध का वास्तविक आरम्भ 1758 ई० में तब हुआ जब फ्रांसीसी सरकार ने काउंट डी लाली को भारत के सम्पूर्ण फ्रांसीसी प्रदेशों के सैनिक एवं असैनिक अधिकारों से युक्त अधिकारी नियुक्त किया। लाली ने 1758 ई० में फोर्ट सेंट डेविड जीत लिया। इसके पश्चात् मद्रास को घेर लिया, लेकिन अंग्रेजी नौसेना आने के कारण उसे घेरा उठाना पड़ा। की सेना के बीच लड़ा गया। कैप्टन पैराडाइज के अधीन एक छोटी सी फ्रांसीसी सेना ने, जिसमें 230 फ्रांसीसी तथा 700 भारतीय सैनिक थे, महफूज खाँ के नेतृत्व वाली नवाब की 10 हजार की भारतीय सेना को पराजित कर दिया। इस युद्ध से यह स्पष्ट हो गया कि घुड़सवार सेना की अपेक्षा तोपखाना श्रेष्ठ है तथा एक छोटी अनुशासित फौज मध्यकालीन बड़ी फौज पर भारी पड़ती है। इस युद्ध का महत्व इस बात में भी है कि इससे नौसैनिक शक्ति की महत्ता स्थापित हुई। यूरोपीय अनुशासित सेना की उत्कृष्टता सामने आई और भारतीय राजनीति का खोखलापन स्पष्ट हो गया।

यूरोप में ए ला शापेल की संधि (1748 ई०) से आस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हो गया, जिसके कारण कर्नाटक का प्रथम युद्ध भी समाप्त हो गया। इस संधि से मद्रास अंग्रेजों को तथा अमेरिका में लुईवर्ग फ्रांसीसियों को वापस मिल गए। इस तरह युद्ध के प्रथम दौर में दोनों दल बराबर रहे। कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (1749-54 ई०) Arrival of Europe companies All competitive Examination 2023 History 

निजामुलमुल्क आसफजाह की मृत्यु 1748 ई० में हो गई, जिससे उत्तराधिकार के

लिए संघर्ष प्रारम्भ हुआ। इसी समय चन्दा साहब को मराठों द्वारा रिहा कर दिया गया। निजाम का पुत्र नासिरजंग उसका उत्तराधिकारी बना, परन्तु उसके भांजे मुजफ्फरजंग ने उसके इस दावे को चुनौती दी। दूसरी ओर कर्नाटक के नवाब अनवरुद्दीन तथा उनके बहनोई चन्दा साहब के बीच विवाद प्रारम्भ हुआ। डूप्ले ने इस अनिश्चित अवस्था से राजनैतिक लाभ उठाने की सोची तथा मुजपफरजंग को हैदराबाद का निजाम तथा चन्द्रा साहब को कर्नाटक का नवाब बनाने के लिए अपनी सेनाओं द्वारा सहायता देने का वचन दिया।

अम्बूर का युद्ध (1749 ई०) मुजफ्फरजंग, चन्दा साहब और डूप्ले की संयुक्त सेनाओं ने 1749 ई० में कर्नाटक पर आक्रमण कर आबूर की लड़ाई में अनवरुद्दीन को पराजित कर मार डाला। अनवरुद्दीन का पुत्र एवं उत्तराधिकारी मुहम्मद अली ने भागकर त्रिचनापल्ली के दुर्ग में शरण ली। कर्नाटक का शेष भाग चन्दा साहब के अधिकार में आ गया। इन्होंने अर्काट को अपनी राजधानी बनाकर शासन करना प्रारम्भ किया। चन्दा साहब ने फ्रांसीसियों को पांडिचेरी के पास 80 गाँवों का अनुदान दिया। डूप्ले ने चन्दा साहब को त्रिचनापल्ली का घेरा डालने को कहा।

इसी बीच अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों की बढ़ती शक्ति को देखकर निजाम पद पर नासिरजंग का पक्ष लिया। नासिरजंग ने अंग्रेजों की सहायता से दिसम्बर, 1750 ई० में कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया। जिंजी नदी के तट पर इसने चन्दा साहब, मुजफ्फरजंग व झांसीसी संयुक्त सेना को पराजित कर दिया। लेकिन इसी समय नासिरजंग को सेना ने विद्रोह कर दिया, जिसमें नासिरजंग मारा गया।

डूप्ले ने तुरन्त मुजफ्फरजंग को निजाम बना दिया, बदले में उसने फ्रांसीसी कम्पनी को 50 लाख रुपये तथा सैनिकों को 5 लाख रुपये दिए। डूप्ले को 20 लाख रुपये तथा 1 लाख रुपये वार्षिक को जागीर मिली में निजाम-उल-मुल्क आसफ जाह अर्द्ध-स्वतंत्र शासक था। कोरोमण्डल तट और उसके पीछे की भूमि जिसे कर्नाटक कहा जाता था, मुगल दक्कन का एक सूबा था। यह निजाम के अधिकार के अन्तर्गत आता था। जिस प्रकार निजाम व्यावहारिक रूप से दिल्ली की सरकार से स्वतंत्र हो गया था, उसी प्रकार कर्नाटक का नायब सूबेदार जिसे इस क्षेत्र का नवाब कहा जाता था, ने अपने को दक्कन के नवाब के नियंत्रण से मुक्त कर लिया था।

कर्नाटक के नवाब सआदत उल्ला खाँ ने अपने भतीजे दोस्त अली को निजाम की मंजूरी के बिना ही अपना उत्तराधिकारी घोषित करके अपने ओहदे को वंशानुगत बना दिया था। सन् 1741 ई० में मराठों ने कर्नाटक पर आक्रमण किया और यहाँ के शासक दोस्त अली को मार डाला एवं उसके दामाद चन्दा साहब को बन्दी बना लिया। किसी भी शासक के अभाव में निजाम आसफजाह ने अपने निकट सम्बन्धी अनवरुद्दीन को कर्नाटक का नवाबः बना दिया।

 

1741 ई० में कर्नाटक पर मराठा आक्रमण के बाद इस क्षेत्र में अव्यवस्था की स्थिति थी, फिर भी अंग्रेज और फ्रांसीसी शान्तिपूर्वक व्यापार में संलग्न रहे। यही नहीं, 1740 ई० में मेरिया थेरेसा के उत्तराधिकार को लेकर (आस्ट्रियाई उत्तराधिकार के युद्ध में दोनों प्रतिद्वंद्वियों के भाग लेने के कारण) एवं अमेरिकी उपनिवेश के झगड़े को लेकर यूरोप में अंग्रेजों और फ्रांसीसियों में युद्ध चल रहा था, फिर भी फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले ने भारत में शान्ति बनाये रखने के उद्देश्य से ब्रिटिश अधिकारियों से सम्पर्क स्थापित किया, लेकिन अंग्रेज अधिकारियों द्वारा ऐसी किसी तटस्थता के बारे में कोई भी बातचीत नहीं की गई।

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1746-48 ई०) यह युद्ध आस्ट्रिया के उत्तराधिकार युद्ध का विस्तार मात्र था। गृह सरकारों की आज्ञा के विरुद्ध ही दोनों दलों ने 1746 ई० में युद्ध आरम्भ कर दिए। युद्ध की पहल अंग्रेजों की तरफ से हुई।

बारनैट के नेतृत्व में अंग्रेजी नौसेना ने कुछ फ्रांसीसी जलपोत पकड़ लिए। डूप्ले ने कर्नाटक के नवाब से अपने जहाजों की सुरक्षा की प्रार्थना की, लेकिन अंग्रेजों ने नवाब की किसी बात पर गौर नहीं किया। परिणामस्वरूप डूप्ले ने मारीशस के फ्रांसीसी गवर्नर ला वूडने से सहायता मांगी। ‘ला बूहोंने अपने 3000 सैनिकों के बेड़े के साथ कोरोमण्डल तट पर पहुँच गया और मद्रास पर अधिकार कर लिया। फ्रांसीसियों ने भूमि और समुद्र दोनों में घेरा डाल दिया।

ला बूडोंने का विचार अंग्रेजों से फिरौती लेने का था। उसने 40 हजार पौण्ड लेकर मद्रास अंग्रेजों को लौटा दिया, लेकिन डूप्ले ने नगर को पुनः जीत लिया। फ्रांसीसियों द्वारा मद्रास को घेर लिए जाने के बाद अंग्रेजों ने नवाब का संरक्षण चाहा। नवाब ने फ्रांसीसियों को मद्रास का घेरा उठा लेने को कहा, लेकिन डूप्ले ने कूटनीति का प्रयोग करते हुए कहा कि वह मद्रास से अंग्रेजों को हटाकर नवाब को सौंप देगा। नवाब को डूप्ले के कथन में शंका दिखाई दी, जिसके कारण युद्ध अवश्यंभावी हो गया। सेंटथोमे का युद्ध (1748 ई०) कर्नाटक के युद्ध में यह सर्वप्रमुख युद्ध है। यह युद्ध फ्रांसीसी सेना एवं नवाब, …

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