यूरोपीय कंपनियों का आगमन ( Europi companiyon ka aagman)
pcshindi
प्राचीन काल में यूरोप और भारत के बीच व्यापारिक संबंध यूनानियों के साथ आरम्भ हुए। मध्यकाल में यूरोप का भारत से व्यापार कई मार्गों से होता था। एक मार्ग फारस की खाड़ी तक समुद्र के रास्ते जाता था। वहाँ से फिर इराक़ और तुर्की होकर ज़मीन के रास्ते एवं आगे समुद्र के जरिये वेनिस और जेनेवा तक जाता था। एक दूसरा मार्ग लाल सागर होकर मिस्र के सिकन्दरिया तक पल मार्ग और वहाँ से समुद्र के जरिए वेनिस और जेनेवा पहुँचता था। एक तीसरा मगर कम प्रचलित थल मार्ग भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा- प्रान्त के दरों से होकर मध्य एशिया, रूस तथा बाल्टिक सागर को पार करता हुआ जाता था। इस तरह भारत को यूरोप से मिलाने वाले दो मुख्य समुद्री मार्ग थे- प्रथम फारस की खाड़ी से होकर एवं द्वितीय लाल सागर से होकर। इसमें फारस की खाड़ी वाला मार्ग ज्यादा प्रचलित था, क्योंकि लाल सागर वाला मार्ग अत्यधिक कुहरे के कारण दुष्कर था।
एशिया का अधिकांश व्यापार अरबवासियों के हाथ में था, जबकि भू-मध्य सागरीय और यूरोपीय व्यापार इतालवी व्यापारियों के एकाधिकार में था। यह व्यापार पूर्वी देशों के गरम मसालों के कारण बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि गरम मसालों की यूरोप में बहुत माँग थी ये मसाले यूरोप में बहुत महंगे बिकते थे, क्योंकि जाड़ों में नमक और काली मिर्च T डलें गोश्त पर ही वे जिन्दा रहते थे। 1453 ई० में कुस्तुनतुनिया पर तुकों ने अधिकार कर लिया, इस कारण पूर्वी और पश्चिमी देशों के मध्य सम्पर्क स्थापित करने वाला मार्ग भी तुर्कों के अधीन आ गया और उन्होंने यूरोप के व्यापारियों को अपने साम्राज्य से होकर पूर्वी देशों से व्यापार करने की सुविधा देने से इन्कार कर दिया। पहले वेनिस और जेनेवा के व्यापारियों ने वरोप और एशिया के बीच व्यापार पर एकाधिकार कर लिया था, इस कारण यूरोप के नवीन राष्ट्र स्पेन और पुर्तगाल व्यापार से बहिष्कृत थे, लेकिन गरम मसाले के महत्व और भारत के विख्यात वैभव के लोभ से पूरब के साथ व्यापार करने को ये लालायित थे। इसीलिए पश्चिमी यूरोप के नवीन राज्यों ने भारत और इण्डोनेशिया के मसाला द्वीपों तक पहुँचने के लिए नए और अपेक्षाकृत कम जोखिम भरे मार्ग ढूँढने आरम्भ कर दिए। ये लोग अरब और वेनिस के व्यापारियों के एकाधिकार को तोड़कर तथा तुर्की के झगड़े से बचकर पूरब के देशों से सीधे व्यापारिक संबंध कायम करना चाहते थे । वे ऐसा करने के लिए पूरी तरह समर्थ थे, क्योंकि 15वीं सदी के दौरान जहाजरानी निर्माण और नौपरिवहन विज्ञान में महान प्रगति हुई। यूरोप के पुनर्जागरण ने पश्चिमी यूरोप के लोगों में उद्यम को भावना पैदा कर दी। इस समय कुतुबनुमा (दिशा-सूचक) का आविष्कार भी हो चुका था। नए भौगोलिक आविष्कार और व्यापारिक मार्गों की खोज में पुर्तगाल अग्रणी था। पुर्तगाल के राजकुमार प्रिंस हेनरी “द नेवीगेटर” के सतत प्रयासों से भौगोलिक खोजों का कार्य आसान हुआ। पुर्तगालियों और स्पेनवासियों ने भौगोलिक खोजों का युग आरम्भ किया। पुर्तगाल के नाविक मोडियाज ने 1487 ई० में उत्तमाशा अन्तरीप को खोज निकाला, जिसे उसने तूफानी अन्तरीप कहा। 1494 ई० में स्पेन के निवासी कोलम्बस ने भारत पहुँचने का मार्ग ढूंढते हुए अमरीका को खोज निकाला। 1498 ई० में पुर्तगाली वास्कोडिगामा ने – उत्तमाशा अन्तरीप का चक्कर काटकर भारत तक पहुँचने में सफलता पाई। इन समस्त नवीन खोजों का एकमात्र उद्देश्य व्यापारिक मार्गों की जानकारी प्राप्त करना एवं आर्थिक लाभ कमाना था।
भारत के पश्चिम में मालाबार तट पर कालीकट एवं कोचीन तथा गुजरात में सूरत, भडौंच और कैम्बे प्रसिद्ध बन्दरगाह थे।
ये बन्दरगाह पश्चिमी देशों के साथ भारतीय व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे। दक्षिणपूर्वी एशिया के मसाले, रेशम, चीनी मिट्टी, लाख इत्यादि वस्तुएँ मालाबार तट पर लायी जाती थीं, जहाँ से लाल सागर एवं फारस की खाड़ी होकर इन्हें पश्चिमी देशों को भेजा जाता था। पश्चिमी देशों को भेजी जाने वाली अन्य प्रमुख भारतीय वस्तुएं श्रीमती कपड़ा, नील, मसाले और जड़ी-बूटियों इस समय गुजरात से भारी मात्रा में सूती कपड़े का निर्यात होता था । 1500 ई० के लगभग भारत के समूचे व्यापार को नियंत्रित करने वाला प्रमुख समुदाय था, कोरोमण्डल चेट्टियार समुदाय बंगाल की खाड़ी के समूचे क्षेत्र में और विशेष रूप से कोरोमण्डल से मलक्का तक के व्यापार में उनकी बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस व्यापार में उनके साथ एक अन्य दक्षिण-पूर्वी व्यापारी समुदाय था चूलिया मुसलमान इस प्रकार भारत में पुर्तगालियों के आगमन के समय विशिष्ट समुद्री मार्गों पर विशिष्ट व्यापारिक समुदायों का प्रभुत्व था ।
भारत में यूरोपवासियों के आने के क्रम में सर्वप्रथम पुर्तगीज थे। इसके बाद च अंग्रेज, डेनिश और फ्रांसीसी आए। इन यूरोपियों में यद्यपि अंग्रेज डच के बाद आए थे, परन्तु उनकी ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना डच ईस्ट इण्डिया कम्पनी से पहले ही हो चुकी थी ।
पुर्तगीज
रोपवासियों में सर्वप्रथम पुर्तगीज भारत आए। उत्तमाशा अन्तरीप का चक्कर काटते हुए अब्दुल मनीद नामक गुजराती पथ-प्रदर्शक की सहायता से 17 मई, 1498 ई० को कालीकट के प्रसिद्ध बन्दरगाह पर “कप्पकडाबू” नामक स्थान पर वास्कोडिगामा अपना बेड़ा उतारा कालीकट में बसे हुए अरब व्यापारियों ने उसके प्रति वैमनस्य का रवैया अपनाया, किन्तु कालीकट के हिन्दू राजा ने, जिसकी पैतृक उपाधि ‘जमोरिन’ थी, उसका हार्दिक स्वागत किया और उसे मसाले एवं जड़ी-बूटियाँ इत्यादि ले जाने की आज्ञा प्रदान की। वास्कोडिगामा को इस माल से यात्रा व्यय निकालने के बाद भी 60 गुना लाभ प्राप्त हुआ। इस तरह पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन कुछ समय के लिए समस्त यूरोपीय व्यापार का केन्द्र बन गई और पुर्तगाली शासक ‘मैनुअल’ द्वारा “वाणिज्य के प्रधान” की उपाधि धारण की गई।
1500 ई० में ‘पेड्रो अल्वरेज केवल’ के नेतृत्व में द्वितीय पुर्तगाली अभियान कालीकट पहुँचा। इसने कालीकट बन्दरगाह में एक अरबी जहाज पकड़कर जमोरिन को उपहारस्वरूप भेंट किया।
1502 ई० में वास्कोडिगामा पुनः भारत आया। 1503 ई० में पुर्तगालियों ने कोचीन में पहली फैक्ट्री बनाई 1505 ई० में उन्होंने कन्नूर (Connore) में दूसरी फैक्ट्री बनाई। उसी वर्ष 1505 ई० में “फ्रांसिस्को डी अलमीडा” को प्रथम पुर्तगाली वायसराय बनाकर भारत भेजा गया।
पुर्तगालियों के यूरोप एवं भारत के बीच एक सीधा समुद्री मार्ग खोजने के पीछे आर्थिक और धार्मिक कारण सक्रिय थे। आर्थिक कारणों में अरबों एवं अपने यूरोपीय प्रतिस्पर्धियों यानी वेनिस एवं जेनेवा के व्यापारियों को समृद्ध पूर्वी व्यापार से निकाल बाहर करना और धार्मिक कारणों में अफ्रीका एवं एशिया की जनता को ईसाई बनाकर तुर्कों एवं अरबों की बढ़ती हुई शक्ति को संतुलित करना था।
फ्रांसिस्को डी अल्मीडा ( 1505-09 ई०)
अल्मीडा को भारत का प्रथम पुर्तगाली गवर्नर बनाया गया। उसे सरकार की ओर से निर्देश था कि वह भारत में ऐसे पुर्तगाली दुर्ग बनाए जिसका लक्ष्य सुरक्षा न होकर, हिन्द महासागर के व्यापार पर पुर्तगाली नियंत्रण स्थापित करना हो। इस प्रकार अल्मीडा का मूल उद्देश्य शान्तिपूर्वक व्यापार करना था। उसकी यह नीति “ब्लू वाटर पॉलिसी (Blue Water Policy)” अथवा “शान्त जल की नीति” कहलाई ।अल्मीड़ा का 1508 ई० में संयुक्त मुस्लिम नौसैनिक बेड़े (गुजरात + मिस्र + तुर्की) से चौल के समीप युद्ध हुआ, जिसमें यह पराजित हुआ और इसका पुत्र मारा गया। लेकिन अपनी वापसी के पूर्व 1509 ई० में इसने संयुक्त मुस्लिम नौसैनिक बेड़े को पराजित किया। इस विजय से एशिया में ईसाई जगत की नौसैनिक श्रेष्ठता स्थापित हुई और 16वीं शताब्दी में हिन्द महासागर पुर्तगाली सागर के रूप में परिवर्तित हो गया।
अलफांसो डी अलबुकर्क (1509-15 ई०)
अल्मीड़ा के बाद अलबुकर्क गवर्नर बना। इसे भारत में पुर्तगीज शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। इसने कोचीन को अपना मुख्यालय बनाया। 1510 ई० में अलबुकर्क ने बीजापुर के आदिलशाही सुल्तान से गोआ जीत लिया। गोआ की विजय ने दक्षिण-पश्चिम समुद्र तट पर पुर्तगाली नौसैनिक प्रभुत्व की मुहर लगा दी। इसके साथ ही भारत में क्षेत्रीय पुर्तगाली राज्य की स्थापना हुई। अलबुकर्क ने 1511 ई० में दक्षिण-पूर्वी एशिया की महत्वपूर्ण मण्डी मलवका पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। फारस की खाड़ी के मुख पर स्थित हरमुज (Hormus) पर उसका अधिकार 1515 ई० में हो गया। ये तीनों नगर सामरिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण थे, किन्तु बार-बार प्रयास करने पर भी पुर्तगाली अदन पर अधिकार नहीं कर सके, जो लाल सागर के व्यापार पर नियंत्रण की कुंजी थी।
अलबुकर्क भारत में स्थायी पुर्तगीज आबादी बसाना चाहता था इसलिए उसने स्वदेश गई वासियों को भारतीय स्त्रियों से विवाह करने के लिए प्रोत्साहित किया। अलबुकर्क ने अपने क्षेत्र में सती प्रथा बन्द कर दी, किन्तु उसकी नीति में एक बहुत बुरी बात यह थी कि वह मुसलमानों बहुत तंग करता था जो भी हो उसने वफादारों के साथ पुर्तगीजों की सेवा की। 1515 ई० में उसकी मृत्यु हुई। उस समय पुर्तगीज भारत की सबसे सबल जल शक्ति बन चुके थे तथा पश्चिमी समुद्र तट पर उनकी तूती बोलने लगी थी ।